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है, ऐसे जो श्री राजचन्द्र उनके प्रति बार-बार नमस्कार।' - पत्रांक 376 _ 'छह माह सम्पूर्ण हुए जिन्हें परमार्थ के प्रति एक भी विकल्प उत्पन्न नहीं हुआ है ऐसे श्री........ को नमस्कार। - पत्रांक 378 __'यद्यपि हमारा चित्त नेत्र जैसा है, नेत्र में दूसरे अवयवों की तरह एक रजकण भी सहन हो नहीं सकता। उसमें वाणी का उठना, समझाना, यह करना अथवा यह नहीं करना ऐसा चिंतन करना बड़ी कठिनाई से होता है। बहुत-सी क्रियाएँ तो शून्यत्व की भांति होती हैं........ प्रत्येक रूचि समाधान पा चुकी है यह आश्चर्यरूप बात कहाँ कहें ? आश्चर्य होता है ! यह जो देह मिली है वह पूर्व काल में कभी भी मिली नहीं थी, भविष्यकाल में भी प्राप्त होने वाली नहीं है। धन्यरूप-कृतार्थरूप ऐसे जो हम........' - पत्रांक 385
'जीवितव्य को केवल उदयाधीन करने से- होने से विषमता मिटी है। आपके प्रति, स्वयं के प्रति, अन्य के प्रति किसी प्रकार का विभाविक भाव प्राय: उदय को प्राप्त नहीं होता। पूर्वोपार्जित ऐसा जो स्वाभाविक उदय तदनुसार देहस्थिति है, आत्मरूप से उसका अवकाश अत्यंत अभावरूप है।' - पत्रांक 396 ___ 'जिस पुरुष की दुर्लभता चौथे काल में थी, वैसे पुरुष का योग इस काल में होने जैसा हुआ है,........ ईश्वरेच्छा से जिन किन्हीं जीवों का कल्याण वर्तमान में भी सम्भव होगा निर्मित होगा वह तो वैसा होगा, और वह अन्य से नहीं, परन्तु हम से (हमारे द्वारा), ऐसा
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