Book Title: Upasya Pade Upadeyta
Author(s): Pratap J Tolia
Publisher: Jina Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 57
________________ उस प्रतिज्ञा में देवतत्त्व और गुरुतत्त्व की अभेद विवक्षा है। भेद विवक्षा काल में तो वे श्रीमद् की परमात्मारूप में ही पहचान करवाते और उनकी पहचान करवाने में स्वयं गुरुपद की भूमिका निभाते थे, क्योंकि जो देवतत्त्व और धर्मतत्त्व की पहचान करवाएँ वही गुरुपद कहा जाएगा। यदि उन्होंने श्रीमद् की आराध्य-रूप में पहचान नहीं कराई होती, तो इतने सारे भक्तों में से अपने आप कौन-कौन श्रीमद् को आराध्य समझकर उनकी आराधना कर सकते थे ? क्योंकि स्वयं को तो तथा प्रकार का किसी को ज्ञान था नहीं ! उसी न्याय से साधकीय जीवन गुरुपद की अनिवार्यता स्वीकार की गई है । अन्यथा देवपद और गुरुपद की कथंचित भिन्नता का प्रतिपादन ज्ञानियों ने नहीं किया होता । जिन्होंने श्रीमद् की उपस्थिति में उन्हें (अपने) पूर्व संस्कार - बल से ज्ञानी के रूप में पहचाना, पहचान कर उनके ही बोध के द्वारा बोधि-समाधि-लाभ प्राप्त किया, उनके तो श्रीमद् गुरु भी थे और देव भी थे, परन्तु श्रीमद् के देह - विलय के पश्चात् उनकी पहचान जिन्होंने करवाई, वे तो पहचान प्राप्त करने वालों के गुरु ही माने जाएँगे। श्रीमद् तो उनके आराध्य देव ही माने जाएँगे, परन्तु गुरु नहीं ही यह रहस्य है। केवल एकांतिक रूप से उभय सापेक्ष तत्त्व को एक निरपेक्ष मानने पर तो वस्तु का अनेकांतिक स्वरूप पहचाना नहीं जाता, और उसके 47

Loading...

Page Navigation
1 ... 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64