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सुनते वे दोनों मुनि केवलज्ञान को प्राप्त हुए। इस प्रकार जिसके निमित्त से ज्ञानी की दृष्टि में भव पार उतरना नियत हो उनके ही आश्रय से भव पार उतरना हो सकता है। ऐसा सिद्धांत निश्चित होता है। इस न्याय से तथा भव्यता के कारण इस क्षेत्र से वर्तमान में श्रीमद् के निमित्त से ही बहुत से भव्य समकित पाने वाले हैं, अत: श्री सीमंधर प्रभु की ही तथा प्रकार की कथंचित प्रेरणा पाकर यह देहधारी, उक्त आराधना का प्रचार कर और करवा रहा है तो वह आराधनाप्रचार तीर्थंकरों की आशातना नहीं, परन्तु आज्ञा की आराधना है।
शंका : परम पूज्य प्रभुश्री लघुराजस्वामी तो अपने प्रतिबोधित अनुयायी वर्ग को ऐसी प्रतिज्ञा करा गए हैं कि 'जैसे सती का पति एक वैसे ही हम सबके गुरु एक परमकृपालु श्रीमद् राजचन्द्रदेव ही, अन्य को गुरु माने नहीं। जब कि आप उन्हें गुरु के बजाय भगवान मनवाते हैं, तो आपको ऐसा तो कौन-सा ज्ञान हुआ है कि जिसके बल पर यह नई प्ररूपणा आप करते हैं ?
समाधान : जिनकी पराभक्ति की प्रशंसा समय-समय पर इन्द्रसभा में भी हो रही है ऐसे उस भक्तावतार महापुरुष ने केवल निखालिस सरल भक्ति बल से हजारों अजैन पाटीदारों को भक्ति के रंग में रंग कर प्रथम अपनी ओर श्रद्धान्वित बनने दिया। थोड़े समय पश्चात् उनमें से कुछ भोले भक्त पूर्व संस्कारवश व्यक्ति-व्यक्ति को गुरु मानने लग गए, जो अनर्थ का कारण था। इस लिए अवसर देखकर उन्होंने एक स्थान पर सबको बाँधने हेतु उपर्युक्त प्रतिज्ञा करवाई,
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