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में अपने-अपने समय में श्री संघ में जो अद्वितीय पुरुष विशेष हों वे युगप्रधान सत्पुरुष कहे जाते हैं। वे भी तारने का कार्य करते हैं। इस कारण से अपवाद रूप से तीर्थंकर कहे जा सकते हैं। फलितार्थ यह आया कि श्री संघ पच्चीसवाँ तीर्थंकर नहीं, परन्तु उसमें निहित विराजित युगप्रधान सत्पुरुष ही पच्चीसवाँ तीर्थंकर माने जाते हैं। उसी न्याय से वैदिक परम्परा में पूर्णावतार और अंशावतार की कल्पना की गई है।
श्रीमद् राजचन्द्रजी उस काल, उस समय के युगप्रधान सत्पुरुष थे। उनमें तथाप्रकार की तारकशक्ति थी। इसलिए ही डंके की चोट पर कहा कि__ 'तीर्थंकर ने जो समझा और पाया वह इस काल में समझा नहीं जा सके अथवा पाया नहीं जा सके ऐसा कुछ भी नहीं है। यह निर्णय लम्बे अर्से से कर रखा है। यद्यपि तीर्थंकर बनने की इच्छा नहीं है, परन्तु तीर्थंकर ने जो किया उसके अनुसार करने की इच्छा है इतनी अधिक उन्मत्तता आ गई है। उसे शमित करने की शक्ति भी आ गई है, परन्तु जान-बूझकर शमित करने की इच्छा नहीं रखी है।' - पत्रांक 170
जिस प्रकार तीर्थंकर एक विशेषपद है उस प्रकार युगप्रधान भी एक विशेष पद है। केवल आचार्य पद के साथ ही उस पद का कोई सीमित संबंध नहीं है। परन्तु उत्सर्ग से सामान्य केवली से लेकर क्षायिक सम्यक्त्व युक्त द्रव्य-भाव साधुपद पर्यंत और अपवाद से
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