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भगवान तुल्य देखें, श्रद्धान करें। उनकी चौवीस तीर्थंकरों की भांति ही आराधना करें। अर्थात् तीर्थंकरों में और युगप्रधानों में उपास्य की दृष्टि से भेद ना समझें ।
फिर उपर्युक्त आगम प्रमाण और अनुभव प्रमाण अर्थात् प्रत्यक्ष प्रमाण से श्रीमद् की अंतरात्मा में नेपथ्यध्वनि प्रकट हुई और उसे सुनकर पत्रारूढ़ करते हुए परमकृपालु ने बतलाया कि
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'परमात्मा और आत्मा का एक रूप हो जाना पराभक्ति की अन्तिम हद है। एक उसी लय का रहना वह पराभक्ति है... वह लय आना, परमात्मा को निरंजन और निर्देह रूप से चिंतन करने पर, जीव के लिए विकट है, इसलिए जिसे परमात्मा का साक्षात्कार हुआ हो ऐसा देहधारी परमात्मा उस पराभक्ति का कारण है। उस ज्ञानी पुरुष के सर्व चरित्र में ऐक्यभाव का लक्ष्य होने से उसके हृदय में विराजमान परमात्मा का ऐक्यभाव होता है और यही पराभक्ति है। ज्ञानी पुरुष और परमात्मा में अंतर ही नहीं है; और जो कोई अंतर मानता है, उसे मार्ग की प्राप्ति परम विकट है। ज्ञानी तो परमात्मा ही है। और उसकी पहचान के बिना किसी को परमात्मा की प्राप्ति हुई नहीं है। इसलिए सर्व प्रकार से भक्ति करने योग्य ऐसे देहधारी ज्ञानीरूप परमात्मा की दिव्य मूर्ति की नमस्कारादि भक्ति से लेकर पराभक्ति के अंत तक एक लय से आराधना करना ऐसा शास्त्र लक्ष है। परमात्मा इस देहधारी रूप में प्रकट हुआ है ऐसी ही ज्ञानीपुरुष के प्रति जीव की बुद्धि होने से भक्ति का उदय होता है और वह भक्ति क्रमश: पराभक्ति
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