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प्रकट हुई दिखती है, क्योंकि वे महाविदेह क्षेत्र में श्री सीमंधर तीर्थंकर के समवसरण की केवली पर्षदा में विराजित हैं। ___ पं. सुखलालजी जैसे समर्थ विद्वान तार्किक जैन भूगोल - खगोल की विसंवादिता और जड़ विज्ञान की विलक्षण प्रकटता के कारण अनुमान प्रमाण से भले ही महाविदेह को कवियों की कल्पना माने, परन्तु चैतन्य विज्ञान के आविष्कार रूप दूरंदेशी लब्धि-दूरबीन द्वारा देखने पर महाविदेह इस दुनिया से एक अलग स्वतंत्र दुनिया है एवं नंदीश्वरादि द्वीप, स्वर्ग-नर्क ये सब प्रचलित प्ररूपणा से भिन्न स्वरूप में हैं अवश्य, ऐसी प्रतीति होती है।
किसी-किसी शास्त्रविद् को ऐसा कहते हुए सुना है कि समकिती तो देवलोक में ही जाते हैं, कदापि समकित की प्राप्ति से पूर्व मनुष्यायु बंधित हुई हो तो भी वे कर्मभूमि में नहीं जा सकते। भोगभूमि में ही जाएँगे- ऐसा शास्त्र कहते हैं। इसलिए हम तो श्रीमद् देवलोक में पधारे हैं ऐसा मानते हैं- प्ररुपित करते हैं।
प्रश्न - आपकी महाविदेह वाली मान्यता का क्या आधार है ?
समाधान - केवल ज्ञान स्वरूप अपनी आत्मा की परद्रव्य और परभावों से भिन्न प्रतीति, क्वचित् मंद - क्वचित् तीव्र, क्वचित् स्मरण - क्वचित् विस्मरण धारा रूप से जब तक प्रवर्तित हो तब तक उस प्रतीति धारा को क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहा जाएगा
और एक धारावाही प्रवाह से उस अखण्ड प्रतीति को क्षायिक सम्यक्त्व कहा जाएगा। क्षायोपशमिक समकिती जीव को