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उसका महत् फल है, और यदि वैसा न हो तो सर्वज्ञ को सर्वज्ञ कहने का कोई आत्मा से संबंधित फल नहीं है, ऐसा अनुभव में आता है।'
'प्रत्यक्ष, सर्वज्ञ पुरुष को भी (अगर ) किसी कारण से विचार से, अवलंबन से, सम्यग्दृष्टि स्वरूप से भी नहीं जाना हो तो उसका आत्म प्रत्ययी फल नहीं है। परमार्थ से उनकी सेवा - असेवा से जीव को कोई जातिभेद नहीं होता। इसलिए उसे किसी सफल कारण रूप से ज्ञानीपुरुष ने स्वीकार नहीं किया है ऐसा दिखाई देता है । ' - पत्रांक 504
उपर्युक्त आगम और अनुभव प्रमाण के स्वल्प उद्धरणों से यह सिद्ध हुआ कि 'आत्मज्ञानी और सर्वज्ञ वीतराग दोनों एक समान उपास्य हैं' इस प्रकार दिगम्बर श्वेताम्बर उभय परम्परा के प्राचीन आचार्य कह गए हैं।
फिर भावनिर्ग्रथ को द्रव्यलिंगता के साथ अमुक निश्चित वेशभूषा और क्रियाकांड का कोई एकांतिक अनिवार्य संबंध नहीं यह भी उभय जैन परम्परा के शास्त्र कहते हैं । जैसा कि - समयसार में कहा है कि ‘पाखंडी लिंगाणि व गिहिलिंगाणि व बहुप्पयाराणि । ण हु होदि मोक्खमग्गो धेत्तुं वदंति मूढ़ा लिंगमिणं मोक्खमग्गोत्ति ॥ 408 ॥ ण हु होदि मोक्खमग्गो लिंगं जं देहणिम्ममा अरिहा । लिंगं मुइत्तु दंसणणाण चरिताणि सेयंति ॥ 409 ॥ णवि एस मोक्खमग्गो पाखंडीगिहिमयाणि लिंगाणि। दंसणणाण चरित्ताणि मोक्खमग्गं जिणा विंति ॥ तम्हा दुहितु लिंगे सागारणगारएहिं वा गहिए । दंसणणाणचरित्ते अप्पाणं जुंज
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