________________
अखंड धारा से वि.सं. 1948 की मार्गशीर्ष शुक्ला 6 सोमवार को क्षायिक सम्यक्त्व प्रकट हुआ। जिससे वे अखण्ड स्वरुप ज्ञानी बीजकेवली बने।
निरभ्र आकाश में दो कला निरावरण चन्द्रमा की भाँति अनंतानुबंधी कषाय और दर्शनमोह रहित चिदाकाश में आत्मचन्द्र का दो कला निरावरण रूप में अखंडधारा से सतत सहज प्रकाशित बना रहना वह जघन्य बीज केवलज्ञान' कहा जाएगा, और चतुर्दशी के चन्द्रमा की भांति आत्मचन्द्र का प्रकाशित होना 'उत्कृष्ट बीज केवलज्ञान' कहा जाएगा। बीच का अंतराल मध्यम बीज केवलज्ञान' का है। जब पूर्णिमा के सर्वथा निरावरण पूर्णचन्द्र की भांति आत्मचन्द्र का सर्वथा निरावरणत्व हो तब ‘सम्पूर्ण केवलज्ञान' हुआ माना जाएगा।
बीजभूत एवं सम्पूर्ण- इस प्रकार केवलज्ञान दो प्रकार से। हाथनोंघ 1-पृ. 175 में श्रीमद् ने अनुभव प्रमाण से जो लिखा है वह उपर्युक्त चिंतनों से बुद्धिगम्य हो सकने योग्य है। फिर दृश्य पदार्थ की अपेक्षा से ही सिर्फ केवल ज्ञान की व्याख्या इस काल में जो प्रचलित है वह अपूर्ण है। उसके साथ जीव की अपेक्षा से व्याख्या मिलाएँ तब ही वह सम्पूर्ण हुई मानी जाएगी। क्योंकि जैन न्याय ग्रंथों में 'स्वपर व्यवसायी ज्ञानं प्रमाणम्' अर्थात् जो 'स्व' वह स्वरूप से और 'पर' वह पररूप से इस प्रकार स्व-पर जो जैसा है वैसा भिन्न-भिन्न बताए वह ज्ञान प्रमाणभूत माना गया है। इस न्याय से केवलज्ञान की प्रचलित
32