Book Title: Tulsi Prajna 2004 07 Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya Publisher: Jain Vishva Bharati View full book textPage 9
________________ एक पूरा अध्याय देव, गुरु एवं धर्म की विवेचना में लगाया है। उन्होंने अर्हत् को देव, निर्ग्रन्थ को गुरु एवं आत्मशुद्धि के साधन को धर्म कहा है। धर्म के एक, दो, तीन, चार, पाँच एवं दस प्रकारों का निरूपण किया है। दस प्रकार वे ही क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि हैं, जिनका उल्लेख तत्त्वार्थसूत्र में भी हुआ है। किन्तु एक, दो, तीन, चार एवं पाँच प्रकारों का संयोजन नया है। धर्म के एक प्रकार में अहिंसा का, दो प्रकारों में श्रुत एवं चारित्र का तथा संवर एवं निर्जरा का उल्लेख है। तीन प्रकारों में स्वधीत, सुध्यातत्व एवं सुतपस्यित का, चार प्रकारों में ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तप का तथा पाँच प्रकारों में अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह का उल्लेख है।' 4. दशम प्रकाश में प्रमाण, नय एवं निक्षेप के लक्षण देते हुए चार प्रकार के निक्षेपों का विवेचन किया गया है। तत्त्वार्थसूत्र में नाम, स्थापना, द्रव्य एवं भाव निक्षेप का उल्लेख मात्र है, जबकि दीपिका में प्रत्येक का लक्षण भी दिया गया है" तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम अध्याय में निरूपित अनुयोगों के दो सूत्रों (7 एवं 8) का समावेश यहां पर एक ही सूत्र (दशमप्रकाश सूत्र 11) में कर दिया गया है। तत्त्वार्थसूत्र के जिन विषयों की जैन सिद्धान्तदीपिका में चर्चा नहीं की गई है, वे मुख्यतः इस प्रकार हैं1. नरक एवं देवलोक तथा इनमें रहने वाले नारक एवं देवों का वर्णन। तत्त्वार्थसूत्र के तृतीय एवं चतुर्थ अध्याय क्रमशः उपर्युक्त विषयों का वर्णन करते हैं, जिसे आचार्य श्री तुलसी जी ने सम्भवतः आधुनिक युग में अनावश्यक समझ कर छोड़ दिया है। ज्ञानावरणादि अष्टविध कर्मों के बन्ध के अलग-अलग कारणों का निर्देश। तत्त्वार्थसूत्र के षष्टम अध्याय में आठों प्रकार के कर्मों के पृथक -पृथक् बन्ध-कारणों का निर्देश है12, जिसे आचार्य श्री तुलसी जी ने छोड़ दिया है। 3. श्रावक के 12 व्रतों के अतिचार। तत्त्वार्थसूत्र के सप्तम अध्याय में श्रावक के व्रतों के अतिचारों का नामोल्लेख है, जबकि जैन सिद्धान्तदीपिका में इनकी कोई चर्चा नहीं है। 2. 4 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 125-126 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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