Book Title: Tulsi Prajna 2004 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 13
________________ 4. धारणा - तस्यावस्थितिर्धारणा अवाय रूप निर्णयात्मक ज्ञान की अवस्थिति धारणा है। (3) जैन सिद्धान्तदीपिका में श्रुतनिश्रित मतिज्ञान के रूप में वर्णित औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कार्मिकी और पारिणामिकी नामक चार बुद्धियों को विशेष महत्त्व देते हुए उनके पृथकूपेण लक्षण दिए गए हैं। तत्त्वार्थसूत्र एवं भाष्य में चारों बुद्धियों के सम्बन्ध में कोई वर्णन नहीं है। दीपिका में प्रदत्त लक्षण इस प्रकार हैं 1. औत्पत्तिकी - अदृष्टाश्रुतार्थग्राहिणी औत्पत्तिकी।" अदृष्ट एवं अश्रुत अर्थ के सम्बन्ध में तत्काल ज्ञान करने वाली बुद्धि औत्पत्तिकी है। इसे प्रतिभा एवं प्रातिभ ज्ञान भी कहा गया है। 2. वैनयिकी - विनयसमुत्था वैनयिकी ३० विनय से उत्पन्न बुद्धि वैनयिकी है। गुरु की शुश्रूषा अथवा ज्ञान और ज्ञानी के प्रति विनम्रभाव को आचार्य श्री ने विनय कहा है। 3. कार्मिकी - कर्मसमुत्था कार्मिकी।" कर्म अर्थात् अभ्यास से उत्पन्न बुद्धि कार्मिकी है। 4. पारिणामिकी - परिणामजनिता पारिणामिकी। परिणाम से उत्पन्न होने वाली बुद्धि पारिणामिकी है। आचार्य श्री ने वयः परिणति को परिणाम कहा है। (4) तत्त्वार्थसूत्र में अवग्रह, ईहा, अवाय एवं धारणा के बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिश्रित, असंदिग्ध और ध्रुव तथा इनके विपरीत अल्प, अल्पविध, अक्षिप्र, निश्रित, संदिग्ध और अध्रुव के रूप में 12-12 प्रकार निरूपित हैं, जबकि जैन सिद्धान्तदीपिका में इन्हें छोड़ दिया गया है। (5) आचार्य श्री तुलसी जी ने जातिस्मरणज्ञान को मतिज्ञान का ही एक भेद प्रतिपादित करने हेतु सूत्र निर्माण किया है- जातिस्मृतिरपि मतेर्भेद:34, किन्तु तत्त्वार्थसूत्र में इसकी कोई चर्चा नहीं है। इस प्रकार यह सूत्र जैन सिद्धान्तदीपिका के वैशिष्ट्य को इंगित करता है। (6) कर्मग्रन्थ आदि के आधार पर जैन सिद्धान्तदीपिका में श्रुतज्ञान के 14 भेद प्रतिपादित हैं- 1. अक्षरश्रुत, 2. अनक्षर श्रुत, 3. संज्ञिश्रुत, 4. असंज्ञिश्रुत, 5. सम्यक्श्रुत, 6. मिथ्याश्रुत, 7. सादिश्रुत, 8. अनादिश्रुत, 9. सपर्यवसितश्रुत, 10. अपर्यवसितश्रुत, 8 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 125-126 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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