Book Title: Tulsi Prajna 2004 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 62
________________ पंखे को चलाए, न औरों से चलवाए और न ही चलते हुए का अनुमोदन करें, किन्तु गृहस्थों द्वारा अपनी सुविधा से चलाए गए पंखों के नीचे बैठे हुए साधु को वायुकाय की विराधना का दोषी कैसे माना जाएगा? यदि मन से भी उसका अनुमोदन वह कर देगा, तो दोष लगेगा ही । जैन साधु जो भी चीजें ग्रहण करते हैं, वे अचित्त (निर्जीव) हैं, ऐसा निर्णय आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत – इन पांच व्यवहारों के आधार पर करते हैं। इस विषय में श्रीमज्जयाचार्य ने बहुत स्पष्ट रूप से प्रतिपादन किया है। (देखें टिप्पण 42 ) इसी आधार पर तेरापंथ धर्मसंघ में राख या चूना से परिणत पानी को अचित्त मानकर ग्रहण किया जाता है। फल आदि संन्दर्भ में भी कौन - सा फल किस स्थिति में सचित्त है, किस स्थिति में अचित्त है, इसका निर्णय करने हेतु अलग-अलग कसौटियां निर्धारित की गई हैं। उसी तरह सैल द्वारा संचालित घड़ी का प्रयोग विहित माना गया है। बहुत सारी प्रवृत्तियां सदोष न हो, फिर भी जब तक उन्हें वर्ज्य माना जाता है, कोई भी साधु तेरापंथ धर्मसंघ में उन प्रवृत्तियों को नहीं कर सकता। इसी आधार पर माइक, लाईट आदि का प्रयोग साधु स्वयं नहीं करते । गृहस्थ अपनी सुविधा के लिए करे, तो वे जानें किन्तु माइक में साधु का शब्द जाने से साधु को दोष नहीं लगता, सहज - निष्पन्न लाइट आदि का प्रकाश काम में लेने से भी साधु को दोष नहीं लगता, इसलिए इस प्रकार के कार्यों का विधान तेरापंथ की मर्यादा में चिंतनपूर्वक किया गया है । श्रुतधर ( मुनि) गवेषणा करके श्रुत के उपयोग से निर्दोष स्वरूप जानने के बाद जो ग्रहण करता है, वह केवली को अशुद्ध ( दोषयुक्त) दिखने के बाद भी केवली उसका उपयोग करते हैं अन्यथा श्रुत अप्रमाणित हो जाता है । यह उद्धरण ही बहुत स्पष्टतया श्रुतज्ञान के निर्णय को कसौटियों पर कसने के पश्चात् शुद्ध बताता है । विद्युत्-विषयक अवधारणा पर जो चिन्तन प्रस्तुत किया गया है, वह निर्जीव रूप में उसे सिद्ध करते हैं । इस श्रुतज्ञान का आधार ही व्यवहार में स्वीकार्य है । यह पहले भी स्पष्ट कर चुके हैं कि जहां तक प्रामाण्य का संबंध है, तेरापंथ मूल 32 आगमों को ही प्रमाण के रूप में स्वीकार करते हैं। पंचांगी का प्रामाण्य मान्य नहीं है । प्रश्न - 36. " पिंडनिर्युक्ति में 'जं संकियमावन्नो पणवीसा' (गा. 521 ) ऐसा कहकर श्रीभद्रबाहुस्वामीजी द्वारा बताई गई एक ओर बात यहाँ अनिवार्य रूप से याद आ जाती है । गोचरी लेने गए साधु को 'सामने पड़ी हुई भोजनादि सामग्री सचित्त है अथवा अचित्त?' इस बात की यदि शंका हो जाए और उसका समाधान न होने पर यदि वह उस चीज़ को ग्रहण करता है तो उस साधु को सचित्तभक्षणनिमित्तक कर्मबंध होता है कि तुलसी प्रज्ञा जुलाई - दिसम्बर, 2004 57 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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