Book Title: Tulsi Prajna 2004 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 66
________________ 568. "पंच अनै चालीस में, जे चउसरण विचार। नाम भक्तपरिज्ञा, बली, फुन पइन्नो संथार ॥ 1 ॥ 569. जीतकल्प, पिंडनियुक्ति, पचखाण-कल्प अवलोय। ए षट् नी नंदी विषे, साख नहीं छै कोय ॥ 2 ॥ 570. महा-निशीथ विषे का, द्वितिय अध्ययन मझार। कुलिखत दोष देवो नहीं, तसुं कारण अवधार ।। 3 ।। 571. एहिज महानिशीथ में किहां क अर्द्ध सिलोग। किहां सिलोग, किहां अक्षर नी, पंक्ति ओली प्रयोग।4।। 572. किहांयक पानो अर्द्ध ही, किहां पत्र बे तीन। गळ्यो ग्रन्थ इम आदि बहु, इह विध कह्यु सुचीन' ॥5 ।। 573. बलि कडं तृतिय अध्येन में, ए पुस्तक रै मांहि । चैंठो इक पाना थकी, बीजो पानो ताहि ॥6 ॥ 574. ते माटे ए सूत्र ना, अलावा न पामेह । तिहां भणणहार सूत्रां तणा, त्यां अशुद्ध लिख्युं हुवै जेह।7।। 575. दोष न देवो तेहनी, खंड-खंड थइ एह। पत्र सड़या खाधी बलि, जीव उद्देहि जेह॥8॥ 576. हरिभद्र निज मति करी, सांधी लिख्युज ताम। इम कर्दा महा-निशीथ में, बलि अन्य आचारज नाम' ॥9॥ 577. तिण सूं महानिशीथ पिण, डोहलाणो छै एह । सर्व मूलगो नहि रह्यो, निपुण विचारी लेह ॥ 10॥ 578. शेष रह्या षट तेह में, कांइक कांइक बाय। अंग सूं न मिलै तेह वच, किम मानीजै ताय॥ 11 ॥ 579. टीका चूर्णि दीपिका, भाष्य निर्युक्ती जाण। किंणहिक री दीसै नथी, तिण सूं एह अप्रमाण ॥ 12॥ 580. एकादश जे अंग थी, मिलता वचन सुजाण। सर्व मानवा जोग्य मुझ, पइन्ना प्रमुख पिछाण ॥ 13 ॥ 581. धुर वे अंग नी वृत्ति जे, शीलाचारज कीध। अभयदेव सूरी करी, नव अंग वृत्ति प्रसीध ॥ 14॥ 582. फुन अभयदवे सूरे रचित, प्रथम उपंग प्रबंध। चंद्र सूरि विरचित वृत्ति, निरावलिया श्रुतस्कंध ॥ 15 ॥ तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2004 - 61 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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