Book Title: Tulsi Prajna 2004 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 58
________________ पाप इलेक्ट्रीसीटी का उपयोग करने वाले को अवश्य लगता है । इसलिए इलेक्ट्रीसीटी के उत्पादन में हिंसा और वह सजीव होने के कारण उसके उपयोग में भी हिंसा का दोष स्पष्ट रूप से दिखाई देता है । वास्तव में त्रस - स्थावर दोनों प्रकार के ढ़ेर सारे जीवों की हिंसा से कलंकित हुए माईक - लाईट फोन- फैक्स वगैरह का उपयोग जीवन पर्यन्त सर्व हिंसा के त्यागी ऐसे जैन साधु-साध्वी जी भगवंत किस प्रकार से कर सकते हैं? ऐसा करें तो उनका अहिंसा महाव्रत किस प्रकार से निर्मल रह सकता है? उत्तर - जैन साधु ऐसी कोई चीज का प्रयोग नहीं कर सकता, जिसमें महाआरम्भ तो क्या, अल्प आरम्भ भी हो। इसीलिए आहार आदि भी सहज - निष्पन्न होने से ही साधु ग्रहण करते हैं । आहार की भांति ही वस्त्र, पात्र, उपकरण, स्थान, औषध आदि सभी चीजें बिना आरम्भ कहीं नहीं बनती। इनके आरम्भ में भी बिजली का प्रयोग अनंतर या परंपर रूप में होता ही है । यदि बिजली की उत्पत्ति में महाआरम्भ के आधार पर उसके उपयोग को सदोष माना जाए तो फिर बिजली की सहायता से निष्पन्न उक्त चीजों का भी उपयोग साधु कैसे कर सकते हैं? जिस प्रकार सहज निष्पन्न उपयुक्त चीजों का उपयोग साधु के लिए विहित है, उसी प्रकार माइक, लाईट आदि गृहस्थों की सुविधा के लिए प्रयुक्त गृहस्थों द्वारा हो तो उसका दोष साधु को कैसे लगेगा? टरबाइन में मछली आदि के कटने की हिंसा की क्रिया उन्हें लगेगी जो कृत, कारित, अनुमोदित रूप में उसमें जुड़ते हैं, फिर भले ही वे साधु हो या गृहस्थ । गृहस्थ की अपनी सुविधा के लिए लगे माइक, लाइट आदि का दोष यदि साधु को भी लगेगा तो फिर गृहस्थों के लिए निर्मित पंडाल, स्टेज, मकान (उपाश्रय) आदि का दोष साधु को क्यों नहीं लगेगा? जहां तक धर्म-प्रचार का सम्बन्ध है- हिंसा के माध्यम से धर्म प्रचार करना ही जब अधर्म है तो हिंसा के द्वारा धर्म-प्रचार करना विहित कैसे होगा ? पर जैसे पुस्तक - मुद्रण आदि में लगने वाली क्रिया साधु को नहीं लगती वैसे ही माइक आदि की क्रिया भी साधु को कैसे लगेगी? यदि धर्म-प्रचार के लिए पुस्तक आदि का लेखन साधु कर सकते हैं तो फिर अपनी यतनापूर्वक उपदेश देने में साधु कैसे दोषी होगा? माइक आदि गृहस्थ अपनी सुविधा के लिए लगाते हैं, यह बात वैसी ही है जैसे पुस्तक का मुद्रण आदि गृहस्थ अपनी सुविधा के लिए करते हैं । न पुस्तक- मुद्रण में साधु कृत, कारित, अनुमोदित रूप में संलग्न हो सकता है, न माइक आदि के प्रयोग में । जैन साधु पांच महाव्रतों का पालन करते हुए ही धर्म-प्रचार करते हैं । इसीलिए वे पुस्तक- मुद्रण जैसी सावद्य प्रवृत्तियों को न कर सकते हैं, न करवा सकते हैं, न उनका अनुमोदन कर सकते हैं। यदि इस संबंध में महाव्रतों का पालन वफादारी से कर सकते तुलसी प्रज्ञा जुलाई - दिसम्बर, 2004 Jain Education International For Private & Personal Use Only 53 www.jainelibrary.org

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