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स्पष्ट है। श्रुतज्ञान का लक्षण भी वैशिष्ट्य रखता है, किन्तु तत्त्वार्थसूत्र में जिस प्रकार श्रुतज्ञान को मतिज्ञानपूर्वक होना कहा है, उस प्रकार का कोई निर्देश दीपिका में नहीं है। यह तथ्य दीपिका में सोच विचार कर छोड़ा गया है या वैसे ही छूट गया है, ज्ञात नहीं ।
'श्रुतज्ञान' के लक्षण में भी जो 'परप्रत्यायवक्षमं ' विशेषण है, क्या वह एकेन्द्रियादि जीवों में प्राप्त श्रुत-अज्ञान में घटित होता है? विचारणीय है। श्रुतज्ञान दूसरे को बोध कराने के लिए होता है या स्वयं को बोध कराने के लिए भी, यह भी विचार का विषय है ।
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3. जैन सिद्धान्तदीपिका में श्रुतनिश्रित मतिज्ञान के चार भेदों - अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा के लक्षणों को सूत्र में उपबद्ध किया गया है, जबकि तत्त्वार्थसूत्र में इनके नामों का ही उल्लेख है, लक्षणों का नहीं । तत्त्वार्थभाष्य में अवश्य उनके लक्षण प्रदत्त हैं, किन्तु आचार्य श्री तुलसी जी के द्वारा प्रदत्त लक्षण विशेषावश्यकभाष्य एवं प्रमाण शास्त्रीय ग्रन्थों में प्रदत्त लक्षणों से प्रभावित हैं, तत्वार्थ भाष्य से नहीं। दीपिका में प्रदत्त लक्षण इस प्रकार हैं
1. अवग्रह - इन्द्रियार्थयोगे दर्शनानन्तरं सामान्यग्रहणमवग्रह : 124
इन्द्रिय एवं पदार्थ का संयोग होने पर दर्शन के पश्चात् जो सामान्य का ग्रहण होता है, वह अवग्रह है।
यहाँ पर यह विचारणीय है कि अवग्रह एक ज्ञान है। ज्ञान 'विशेष' का ग्राहक होता है और दर्शन सामान्य का । उपर्युक्त लक्षण से दोनों दर्शन और अवग्रह में जो भेद है वह पूरी तरह स्पष्ट नहीं होता । आचार्य श्री ने ज्ञान को पर्याय का एवं दर्शन को ध्रौव्य (द्रव्य) का ग्राहक प्रतिपादित किया है । 25 ध्रौव्य सामान्य होता है एवं पर्याय विशेष होती है । यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि वाचक उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान का विषय समस्त द्रव्यों को एवं उनकी असमस्त पर्यायों को बताया है। यदि ज्ञान पर्याय को ही जानता है तो वह द्रव्य को किस प्रकार जान सकेगा ?
2. ईहा - अमुकेन भाव्यमिति प्रत्यय ईहा । 26
अमुक होना चाहिए, इस प्रकार के प्रत्यय को ईहा कहा जाता है ।
ईहा का यह लक्षण महत्त्वपूर्ण है । अनेक स्थलों पर ईहा को शेष आकांक्षा जिज्ञासा, चेष्टा आदि शब्दों से कहा गया है, जो समीचीन प्रतीत नहीं होता ।
3. अवाय अमुक एवेत्यवाय: 17 अमुक ही है, ऐसा निर्णय अवाय है ।
तुलसी प्रज्ञा जुलाई - दिसम्बर, 2004
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