Book Title: Tulsi Prajna 2004 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 10
________________ 4. अष्टविध कर्मों की 97 उत्तर प्रकृतियों के नाम । जैन सिद्धान्तदीपिका में इन उत्तर प्रकृतियों के नाम परिशिष्ट में हिन्दी में दिए गए हैं, जबकि तत्त्वार्थसूत्र के अष्टम अध्याय में इन नामों को सूत्रों (5-14) में गूंथा गया है। इसमें सभी कर्मों की जघन्य एवं उत्कृष्ट स्थिति का भी उल्लेख है, जबकि जैन सिद्धान्तदीपिका में इसकी चर्चा नहीं है। प्रस्तुत निबन्ध में दोनों ग्रन्थों (तत्त्वार्थसूत्र और जैनसिद्धान्तदीपिका) में चर्चित ज्ञान और ज्ञेय के सम्बन्ध में तुलनात्मक विचार करना ही अब प्रमुख लक्ष्य है। ज्ञान निरूपण जैन दर्शन में प्रतिपादित ज्ञान एवं उनके भेदों में कहीं कोई मतभेद नहीं है, इसलिए ऐसा मतभेद इन दोनों ग्रन्थों में भी नहीं हो सकता। दोनों ही ग्रन्थ सम्यग्ज्ञान को मोक्षमार्ग में सम्मिलित करते हैं तथा उसके पाँच भेदों का निरूपण करते हैं । ज्ञान के पाँच प्रकार हैं- मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान। दोनों ग्रन्थों में यह तुलना अवश्य हो सकती है कि इनका वर्णनगत वैशिष्ट्य क्या है? यथा1. तत्त्वार्थसूत्र में सम्यग्दर्शन का तो लक्षण दिया गया है, किन्तु सम्यग्ज्ञान का लक्षण नहीं दिया गया। जैन सिद्धान्तदीपिका में इसका लक्षण दिया गया है- 'यथार्थबोधः सम्यग्ज्ञानम्'। यथार्थ बोध सम्यग्ज्ञान है किन्तु यह लक्षण आगम-परम्परा में मान्य सम्यग्ज्ञान की पूर्ण व्याख्या नहीं करता। आगम के अनुसार सम्यग्दर्शन होने पर ही ज्ञान सम्यक् होता है। उसकी सम्यक्तता अर्थ के अनुरूप होने पर नहीं, अपितु दृष्टि की सम्यक्तता पर निर्भर करती है। यथार्थबोध रूप जो लक्षण है वह 'प्रमाण' के अर्थ में मान्य सम्यग्ज्ञान के लिए उपयुक्त ठहरता है। कदाचित् दृष्टि सम्यक् नहीं होने पर भी वस्तु का संवादी-यथार्थ ज्ञान होता हुआ देखा जाता है। मिथ्यात्वी उसी आधार पर वस्तु को जानते एवं स्मरण आदि करते हैं। उनका यथार्थ बोध संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय से रहित होता है, किन्तु मिथ्यात्व से रहित नहीं होता जबकि मोक्षोपायभूत जो सम्यग्ज्ञान है वह मिथ्यात्व से रहित होता है। आचार्य श्री ने प्रमाण का लक्षण 'यथार्थज्ञानं' दिया है। दोनों स्थानों पर जो 'यथार्थ' शब्द है, उनमें क्या भेद है, इस पर विचार अपेक्षित है। यदि सम्यग्ज्ञान के लक्षण में सम्यग्दर्शनं सति' जोड़ दिया जाए तो मोक्षोपायभूत सम्यग्ज्ञान का पूर्ण लक्षण बन जाता है। तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2004 - 5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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