Book Title: Tulsi Prajna 2004 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 42
________________ अंगुल के असंख्यातवें भाग जितनी प्रतिपादित है और उनमें तुलनात्मक दृष्टि से वायुकाय के जीव की अवगाहना से तेउकाय के जीव की अवगाहना अधिक बताई है। प्रश्न-23 शायद किसी को शंका हो सकती है कि 'चूल्हा, दीया, लालटेन, गैसें' इत्यादि में जो अग्नि पैदा होती है, वह ईंधन के आधार पर उत्पन्न होती है तथा ईंधन की कम या ज्यादा मात्रानुसार वह भी कम या ज्यादा होती है। इसलिए उसे सजीव माना जा सकता है। किन्तु इलेक्ट्रीसीटी में तो किसी भी प्रकार के ईंधन की आवश्यकता नहीं रहती। तो फिर उसे किस प्रकार सजीव माना जा सकता है? ईंधन (खुराक) बिना तो जीव की उत्पत्ति-स्थिति-वृद्धि किस प्रकार से संभव है? परन्तु यह शंका उचित नहीं है, क्योंकि तमाम प्रकार की अग्नि को ईंधन (व्यक्त खुराक) की आवश्यकता हो, ऐसा कोई नियम नहीं है। चूल्हे इत्यादि में उत्पन्न होने वाली अग्नि को ईंधन की आवश्यकता होती है। परन्तु आकाशीय बिजली, इलेक्ट्रीसीटी, बल्ब-प्रकाश इत्यादि स्वरूप तेउकाय के जीवों के लिए ईंधन की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती, क्योंकि वह शुद्ध अग्नि है। श्री दशवैकालिक चूर्णि में श्री जिनदासगणी महत्तर ने 'इंधनरहिओ सुद्धागणि' (4/12) ऐसा कहकर ईंधनरहित अग्नि को शुद्ध अग्नि रूप में बताया है। श्री दशवकालिक सूत्र व्याख्या में श्री हरिभद्रसूरिजी महाराज ने भी 'निरिन्धन:-शुद्धः अग्निः' (अध्ययन 4/12 वृत्ति)। यह कहकर ईंधनरहित अग्नि को शुद्ध अग्निकाय जीव बताया है। श्वेताम्बरमान्य जीव समास ग्रंथ में तथा दिगंबरमान्य मूलाचार ग्रंथ में 'इंगाल-जालअच्ची मुम्मुर-सुद्धागणी य अगणी य' (जी.स. 32 + मूला. गा 221) इत्यादि रूप में जो अग्निकाय जीव के प्रकार बताए हैं, उनमें आकाशीय बिजली को शुद्ध अग्निस्वरूप बताया गया है। मलधारी श्रीहेमचंद्रसूरिजी महाराज ने जीवसमास व्याख्या में 'शुद्धाग्निः = विद्युदग्निः' (गा. 32) बिजली स्वरूप अग्नि को शुद्ध अग्निस्वरूप बताया गया है। मलधारी श्री हेमचंद्रसूरिजी महाराज ने जीवसमास व्याख्या में 'शुद्धाग्निः = विद्युदग्निः' (गा. 32) बिजली स्वरूप अग्नि को शुद्ध अग्निस्वरूप ही स्पष्ट रूप से बताया है। इसलिए अवकाशीय विद्युत्, इलेक्ट्रीसीटी, बल्ब के फिलामेन्ट में उत्पन्न होने वाला प्रकाश, बल्ब-प्रकाश की ज्योति (रोशनी) (उजाला), दूर तक फैलती दीये की ज्योति इत्यादि ईंधनशून्य होने के कारण शुद्ध अग्निरूप सिद्ध होती है। इस प्रकार ईंधन के बिना उसकी उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि इत्यादि दिखाई देने के कारण आगमानुसार बिजली वगैरह शुद्ध अग्निकाय जीव स्वरूप सिद्ध होते हैं । तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2004 - 37 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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