Book Title: Tulsi Prajna 2004 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 52
________________ प्रभाव) के क्षेत्र में होने वाले अनुसंधान जैन अवधारणाओं को और अधिक उजागर करते दृष्टिगोचर हो रहे हैं। प्रश्न 28-प्रकाश चाहे दीपक आदि अग्नि का हो या विद्यत (इलेक्ट्रीसीटी) के उपकरणों का हो, उसे ही कुछ जैन ग्रंथ सचित्त तेउकाय बताते हैं । ऐसा मानने में क्या आपत्ति है? उत्तर-प्रकाश को जैन आगामें में कहीं पर भी अग्निकाय या तेउकाय नहीं बताया है। उसको पौद्गलिक परिणमन या पर्याय के रूप में ही प्रस्तुत किया है। प्रकाश चाहे सूर्य का हो, चन्द्रमा का हो, तारा का हो, आकाशीय विद्युत् का हो या अग्नि-अंगारों का हो-वह निर्जीव है। उसके स्पर्श को आगमों में कहीं वर्ण्य नहीं बताया है। ऐसी स्थिति में कुछ उत्तरकालीन ग्रंथकारों की मान्यता के आधार पर उसे सचित्त तेउकाय मान लेना तथा वैज्ञानिक अवधारणाओं की काल्पनिक व्याख्या कर अपने पक्ष में प्रस्तुत करना-कहां तक उचित्त है? इस विषय की सम्पूर्ण शास्त्रीय मीमांसा एवं वैज्ञानिक सिद्धान्तों की वास्तविकता प्रस्तुत करना बहुत जरूरी है। (देखें परिशिष्ट-1) जिन उत्तरकालीन ग्रंथों के सन्दर्भ उद्धृत हैं, वे सब जैन परम्पराओं में मान्य ग्रंथ नहीं हैं। इसी प्रकार पंचांगी आगम का प्रामाण्य भी केवल सम्प्रदाय-विशेष में ही स्वीकृत है, शेष अन्य सम्प्रदायों द्वारा वे आगम के रूप में मान्य नहीं हैं। विज्ञान ने इलेक्ट्रोन, फोटोन आदि के सम्बन्ध में बहुत स्पष्ट रूप से अपने सिद्धान्तों को प्रस्तुत किया है। फोटोन-प्रकाशाणु किस प्रकार प्रकाश-ऊर्जा की इकाई है तथा किस प्रकार उसका कण रूप एवं तरंग-रूप प्रकट होता है, इसे भली-भाँति समझने के बाद कहीं पर भी यह आशंका नहीं रहती कि वह सजीव हो। फोटो-इलेक्ट्रीक प्रक्रिया में फोटोन की पौद्गलिक ऊर्जा का ही रूपान्तरण इलेक्ट्रोन के विकिरण का निमित्त बनता है। आगमों में जब सूर्य की किरणों के फोटोन को निर्जीव-पौद्गलिक बताया है तथा उसका स्पर्श यदि वर्ण्य नहीं है, तो उसे (फोटोन को) उत्तरकालिक ग्रंथों के आधार पर सजीव मानकर इलेक्ट्रोन को भी उसके आधार पर सजीव बताना आगम की मान्यता का ही खण्डन करना है। सूर्य-किरणों वाले फोटोन और मोमबत्ती, दीये या अग्नि के प्रकाश के फोटोन को विज्ञान शत-प्रतिशत एकरूप-समान मानता है। फिर तो सूर्य के प्रकाश का स्पर्श भी वर्ण्य मानना चाहिए। प्रश्न-29. "अध्यात्म मार्ग का आधार अहिंसा है। इसलिए आरम्भ-समारम्भ छोड़ना प्रत्येक साधक का महत्त्व कर्त्तव्य बन जाता है। सभी आरम्भ छूट न सकें, फिर तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2004 - - 47 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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