Book Title: Tulsi Prajna 2004 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 47
________________ प्रश्न - 25. विज्ञान तो मिनरल वाटर को निर्जीव कह कर दें, अण्डों को शाकाहारी कह कर दें, लसन - प्याज को भक्ष्य ( = खाने योग्य) कह कर दें, पेप्सी को पेय (= पीने योग्य) कह कर हम को दें तो क्या हम उसका उपयोग कर सकते हैं? क्या विज्ञान के पास सजीव-निर्जीव, भक्ष्य - अभक्ष्य, पेय-अपेय, गम्य- अगम्य वगैर की तात्त्विक व्यवस्था है ? विज्ञान द्वारा इन सभी प्रश्नों का जवाब कहाँ से मिलेगा ? वर्षों से जो निरन्तर परिवर्तनशील है, जिसके सिद्धान्तों में दिन-प्रतिदिन परिवर्तन होते रहते हैं, जो स्वयं सम्पूर्ण सत्य को प्राप्त नहीं कर सकने का स्वीकार करता है, ऐसे आज के विज्ञान को ऑथेन्टिक मानकर उसके समीकरण अनुसार शास्त्रीय सत्य को नापने के बजाय सर्वज्ञ भगवंत ने निःस्वार्थभाव एवं करुणादृष्टि से बताए हुए शास्त्रों को, शास्त्रीय तथ्यों को, अतीन्द्रिय पदार्थों को सत्य के रूप में हृदय से स्वीकार करके सर्वज्ञ कथित तत्त्वों के साथ आधुनिक साइन्स कितनी हद तक किस प्रकार से शेकहेन्ड करती है? इस विषय की सूक्ष्म दृष्टि से खोज़ करना वही सच्चा - सलामत और सरल मार्ग है 168 आगम और विज्ञान में परस्पर कहाँ तक समन्वय होता है, कहाँ तक नहीं - यह अपने आप में एक स्वतंत्र अन्वेषण का विषय है । परन्तु किसी भी विषय की मीमांसा को सत्यपरक बनाने के लिए यह आवश्यक है कि अनेकान्त दृष्टिकोण का प्रयोग हो और एकान्तिक आग्रह के आधार पर चिन्तन न हो, भले यह विषय विद्युत् के सचित्त-अचित्त का हो या पदार्थों के भक्ष्य - अभक्ष्य आदि का । जब हम किसी बिन्दु पर विज्ञान की दृष्टि से विचार करते हैं तो इसका अर्थ यह कर लेना कि हम उसके (विज्ञान के) समीकरण अनुसार शास्त्रीय सत्य को नापने का प्रयत्न कर रहे हैं, ठीक नहीं है । हमने प्रारम्भ में ही इस विषय में काफी स्पष्ट कर दिया था कि जो बात आगमप्रमाण द्वारा स्पष्ट है, उसे विज्ञान की ओथेन्टीसीटी की अपेक्षा नहीं है, पर जिन विषयों पर आगम में स्पष्ट नहीं है, उन्हें विज्ञान के सन्दर्भ समझने की कोशिश करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। साथ में जिन अपेक्षाओं से जो तथ्य आगमों में निर्दिष्ट हैं, उन अपेक्षा या दृष्टि को स्पष्ट करने में जहाँ विज्ञान हमें सहायक होता है, वहाँ उसको यह कहकर अस्वीकार करना कि " वह निरन्तर परिवर्तनशील है, उसके सिद्धान्तों में दिन-प्रतिदिन परिवर्तन होते रहते हैं, वह स्वयं पूर्ण सत्य को प्राप्त नहीं कर सकने को स्वीकार करता है", कहाँ तक ठीक है? जहाँ तक स्थावर-काय के जीवत्व का प्रश्न है, विज्ञान ने केवल वनस्पतिकाय के जीवत्व को स्वीकार किया है, शेष स्थावर कायों के जीवत्व को नहीं । इसलिए हम तुलसी प्रज्ञा अंक 125-126 42 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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