Book Title: Tulsi Prajna 2004 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 34
________________ नैयायिक इस मत का विरोध करते हैं । उनका कहना है कि यदि घट के सभी परमाणु अलग-अलग हो गए, तब तो घट का विनाश ही हो गया। दुबारा परमाणुओं के जुटने से एक दूसरे ही घट का अस्तित्व मानना पड़ेगा। किन्तु पक जाने पर घट के स्वरूप में रंग के सिवा और कोई अन्तर नहीं पाया जाता है। उसे देखते ही हम तुरन्त पहचान जाते हैं। इसलिए घट का नाश और घटान्तर का निर्माण नहीं माना जा सकता। घट-परमाणु उसी तरह संलग्न रहते हैं, किन्तु उसके बीच-बीच में जो छिद्र-स्थल रहते हैं, उनमें विजातीय अग्नि का प्रवेश हो जाने के कारण घट का रूप परिवर्तन हो जाता है। इस मत का नाम 'पिठरपाक' है।54 जैन दर्शन में पर्यायान्तर अथवा परिणामान्तर का सिद्धान्त मान्य है। वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श पुद्गल के गुण हैं। इनमें प्रयोगजनित और स्वाभाविक दोनों प्रकार का परिवर्तन होता है। ओदन आदि में अग्नि के संयोग से होने वाला परिवर्तन प्रयोगिक परिवर्तन है। परमाणु तथा परमाणु स्कन्धों में सभी वर्गों की सत्ता है, इसलिए काली मिट्टी के परमाणुओं से बना पात्र आग में पकाने पर लाल रंग का हो जाता है। इसकी व्याख्या के लिए किसी नए सिद्धान्त की स्थापना करना आवश्यक नहीं है।" भगवती सूत्र, शतक 7, उद्देशक 10, सूत्र 229, 230 में अचित्त पुद्गलों द्वारा प्रकाश, ताप, उद्द्योत किस प्रकार हो सकता है, उसका स्पष्ट निदर्शन है "भन्ते! क्या अचित्त पुद्गल भी वस्तु को अवभासित करते हैं? उयोतित करते हैं? तप्त करते हैं? प्रभासित करते हैं? "(कालोदायी) हां करते हैं।" "भन्ते ! वे कौन-से अचित्त पुद्गल भी वस्तु को अवभासित करते हैं? उद्योतित करते हैं? प्रभासित करते हैं?" "कालोदायी! क्रुद्ध अनगार ने तेजोलेश्या का निसर्जन किया, वह दूर जा कर दूर देश में गिरती है, पार्श्व में जाकर देश में गिरती है। वह जहाँ-जहाँ गिरती हैं, वहाँ-वहाँ उसके अचित्त पुद्गल भी वस्तु को अवभासित करते हैं, उयोतित करते हैं, तप्त करते हैं और प्रभासित करते हैं। इस प्रकार ये अचित्त पुद्गल भी वस्तु को अवभासित करते हैं, उद्द्योतित करते हैं, तप्त करते हैं और प्रभासित करते हैं।''55 मीमांसा "ईंट की भट्टी, कुम्हार की भट्टी इत्यादि भट्टियों के मध्य की अग्नि और आकाशीय विद्युत् की अग्नि को निश्चय सचित्त कहा है। आधुनिक विज्ञान के अनुसार तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2004 - - 29 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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