Book Title: Tulsi Prajna 2004 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 8
________________ ईर्या आदि पाँच समितियाँ, अनुप्रेक्षा, भावना, संलेखना, अनशन आदि द्वादश तपों के लक्षण तथा सप्तम प्रकाश में जीवस्थान, 14 गुणस्थान, शरीर समुद्घात आदि के लक्षण निरूपित हैं। अष्टम प्रकाश में देव, गुरु एवं धर्म तथा लोकधर्म के लक्षणों को स्पष्ट किया गया है। नवम प्रकाश में दया, मोह, राग, द्वेष, माध्यस्थ, असंयम, संयम, उपकार, सुख एवं दुःख के लक्षण दिए गए हैं। दशम प्रकाश में प्रमाण, नय एवं निक्षेप के चारों प्रकारों को लक्षण-सहित स्पष्ट किया गया है। इस प्रकार शताधिक पारिभाषिक शब्दों के लक्षण जो तत्त्वार्थसूत्र में नहीं है, जैन सिद्धान्तदीपिका में प्राप्त हैं। इससे इस कृति की विशेषता एवं प्रयोजनवत्ता स्पष्ट हो जाती है। यह एक स्वतन्त्र मौलिक ग्रन्थ है, जो रचयिता के गहन अध्ययन, अनुप्रेक्षण एवं सूक्ष्मेक्षण का परिचायक है। नाम से यह कृति स्वतन्त्र ग्रन्थ की प्रतीति नहीं कराती, क्योंकि 'दीपिका' शब्द का प्रयोग टीका के लिए भी होता रहा है। धर्मभूषणरचित 'न्यायदीपिका' जैसी कृतियाँ इसका अपवाद हैं। न्यायदीपिका जैन-न्याय का स्वतन्त्र ग्रन्थ है। इसी प्रकार 'जैनसिद्धान्तदीपिका' भी स्वतन्त्र कृति होने का परिचय देती है। यह ज्ञातव्य है कि न्यायदीपिका सूत्रग्रन्थ नहीं है, जबकि प्रस्तुत कृति सूत्र ग्रन्थ है। दीपिका' शब्द दीपक का स्त्रीलिङ्ग है। दीपक प्रकाशक होता है। इस अर्थ में जैन सिद्धान्त की प्रकाशक होने से इस कृति का नाम 'जैन सिद्धान्त दीपिका' सार्थक है। पूर्वोक्त शताधिक लक्षणों के अतिरिक्त जैन सिद्धान्तदीपिका में कतिपय विषय सर्वथा नवीन है, यथा1. चतुर्थप्रकाश में कर्म की बन्ध, उद्वर्तना, अपर्वतना आदि दश अवस्थाओं का वर्णन, जिसका तत्त्वार्थसूत्र में इनका उल्लेख नहीं है, जबकि जैन सिद्धान्त दीपिका में प्रत्येक अवस्था को स्पष्ट किया गया है। सप्तम प्रकाश में 14 गुणस्थानों का वर्णन। तत्त्वार्थसूत्र में गुणस्थानों का उल्लेख नहीं हुआ है, जैन सिद्धान्तदीपिका में प्रत्येक गुणस्थान का लक्षण सूत्रबद्ध किया गया है। तत्त्वार्थसूत्र में असंख्यगुण अधिक निर्जरा के जिन सम्यग्दृष्टि-श्रावक आदि दश स्थानों का उल्लेख हुआ है, उसका निरूपण जैन सिद्धान्त दीपिका में अलग से हुआ है। 3. अष्टम प्रकाश में देव, गुरु एवं धर्म का विवेचन। तत्त्वार्थसूत्र में धर्म का विवेचन तो नवम अध्याय में हुआ है, किन्तु देव एवं गुरु को पृथक् से महत्त्व नहीं मिला है। आचार्य श्री तुलसी जी ने जैन सिद्धान्त-दीपिका में तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2004 - 3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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