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तथा जै. उ. १.१६.१ में पाया जाता है। भारतीय विचार के अनुसार ये दोनों लोट् लकार के हैं । इन विद्वानों के द्वारा स्वीकृत लोट् के उत्तम पुरुष के पदों को आधुनिक वैयाकरण लेट् के उत्तम पुरुष में गिनते हैं। तदर्थ उनके अनुसार ये पद लेट का रूप होते हैं। यहां करवाणि और करवाव है पद के लकार के आधार पर करवाव को भारतीय लोट् का रूप और पाश्चात्य विचारों के आधार पर इन तीनों पदों को लङवर्गीय लेट् (Presenr subjunctive) का रूप कहा जा सकता है । ४. कृ धातु का गण विवेचन
उपर्युक्त कतिपय पद साधन से यह देखा जाता है कि लकार ग्रहण में उभय पूर्व और पश्चिम विद्वानों में विशेष मतान्तर नहीं है, पर धातु ग्रहण में असमता दिखाई पड़ती है।
__धातुपाठ में कृत्र हिंसायाम् (५.१२५३.३) स्वादि गण के लिए और डिक्रन करणे (८.१४७२.३) तनादिगण के लिए पढ़ा गया है। इन दोनों के अलावा भ्वादिगण में कृविहिंसाकरणयोश्च (१.५९८.४) धातु भी पाया जाता है जिससे स्वादि के परस्मैपद के समान कृणु अङ्ग बनकर कृणोति, कृणुतः आदि क्रियापद बनते हैं। यहां लक्षणीय है कि स्वादि और तनादिगणीय धातु के साथ भ्वादिगणीय कृवि-कृण्व् धातु गत्यर्थ में भी प्रयुक्त होता है। इस धातु के ग्रहण में भारतीय वैयाकरणों में अनेक मतभेद हैं । धातु तीन होते हुए भी इनके दो प्रकार के क्रियापद बनने से स्वभावतः एक शङ्का होती है कि क्या आचार्य पाणिनि को यह मान्य था ? संभवतः इसका स्पष्ट समाधान आज तक नहीं हो पाया है। पाणिनीय धातुपाठ में कृवि, कृ (कृज डुकृञ्) को भ्वादि, स्वादि और तनादि में दर्शाया गया है। पर आधुनिक धातुपाठ ऐतिहासिक दृष्टिकोण से पूर्णतया प्रामाणिक नहीं लगता है। क्योंकि धातुपाठ में पहले धातुओं का केवल सूची था और बाद में इसमें धातुओं का अर्थ संयुक्त किया गया है । दूसरी बात यह भी है कि पाणिनि परवर्ती भारतीय वैयाकरणों को वस्तुतः ये तीन धातुएं स्वीकरणीय हैं या नहीं, इस पर पृथक-पृथक् मतों का पोषण किया गया है-आचार्य सायण अपने 'माधवीयधातुवृत्ति' में कृवि धातु को भ्वादि के साथ-साथ स्वादिगण में भी मानते हैं। शाकटायन, हेमचन्द्र आदि विद्वान् कृवि धातु को केवल स्वादिगणीय धातु के रूप में स्वीकार करते हैं। कातन्त्र व्याकरण के अनुसार यह हिंसार्थक स्वादिगणीय धातु होता है। यहां यह ध्यातव्य है कि धिन्विकृण्व्योर च (पा. ३.१.७९) सूत्र व्याख्यान पर तत्त्वबोधिनीकार वोपदेव का मत स्वीकार कर कहते हैं कि वोपदेव के अनुसार धिवि और कृवि धातु तनादिगणीय है : 'वोपदेवेन त्वनयोस्तनादित्वं स्वीकृतम् ।' वास्तवतः उन्होंने इन धातुओं को स्वादिगणीय माना है : कृविधिव्योः कृधीश्नौ (सूत्र ७५०)
जिस प्रकार कृवि धातु ग्रहण में अनेक प्रकार के मत मिलते है उसी प्रकार तनादिकृभ्यः उ: (पा. ३.१.७०) में पाणिनि ने तनादि धातुओं के साथ कृ (कृन ) धातु के लिए 'उ' विकरण किया है और कृ के पृथक् विवेचन को लेकर पतञ्जलि आदि अनेक व्याख्या देते हैं. काशिकाकार का मानना है कि क का पृथक् ग्रहण केवल नियमरक्षा के लिए किया गया है जिससे तनादिभ्यस्तथासोः (पा. २.४.७९)
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तुलसी प्रज्ञा
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