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2. The Stage of development of the Prakrit in Bhasas dramas and the Bhāsa epoch'. द्रष्टव्य - Z D.M.G., 1918.
3. Plays Ascribed to Bhasa : Their Authenticity and merits by C. R. Devadhar, the Oriental Book Agency, POONE, 1927, (PP 48-54).
४. द्रष्टव्य :
भासनाटकचक्रम्, सं.. सी. आर. देवधर; प्रका. - ३ - ओरियन्टल बुक एकेडेमी, पूना; सन् १९३७ तथा भासनाटकचक्रम्, सं. संशोधकश्च – प्रो. रामजी उपाध्याय, प्रका - भारतीय संस्कृति संस्थानम्, वाराणसी, सन् १९८६ ५. द्रष्टव्य : प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, ले. आर. पिशल; अनु. --डॉ. हेमचन्द्र जोशी; प्रका....... - बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना सन् १९५८; प्रेरेग्राफ १३५;
पृ. २२८
६. तुलना करें "पदादपर्वा
॥ - हेम प्राकृत व्याकरण १,४१
७. यदि अनुस्वार के बाद 'वि' ध्वनि रखना हो, तो 'अ' का लोप नहीं करना चाहिए । जैसे कि - ' मुहुत्तं अवि' (सं. मुहूर्तमपि ); 'कालगं अवि' इत्यादि उदाहरण पिशल महोदय ने दिये हैं । - देखें, वहीं, पृ. २२९
तथा हेम प्राकृत व्याकरण में भी 'तं पितमवि । किंपि किमवि ।' इस प्रकार उदाहरण दिये गये हैं ।
८.
पुस्तक में यह 'हि' पढ़ा जाता है; दिया है । क्या उसी के प्रभाव में यहां 'खु' ९. प्राकृत में जैन परंपरा में 'अ' के स्थान पर प्रायः 'य' श्रुति पाई जाती है । पर जैनेतर परंपरा में 'अ' ध्वनि मिलती है । अत: त्रिवेन्द्रम् नाटकों में जो प्राकृत है,
वह
'ख'
--- हेम प्राकृत व्याकरण; १/४१ ऐसा प्रो. टी. गणपति शास्त्री ने निर्देश ध्वनि का 'हु' कर दिया है ?
जैनेतर परंपरा की है, यह सूचित होता है ।
१०. यह स्थिति इस हद तक है कि विदूषक ही एक ही उक्ति में 'अन्तअ' और 'अन्तज' ये दो ध्वनि भी सभी संस्करणों में अक्षुण्ण रही है । अर्थात् एक ध्वनि में 'ज' सुरक्षित है और दूसरे में लुप्त है । देखिए-
विदूषक - भो ! ण जाणन्ति ....। अविमारओ इसिसावेण कुलपरिब्भं मं अन्तअकुलप्पवासं अत्तणो .....०। सा राअदारिआ सअं अन्तज ति० ॥
खण्ड २२, अंक १
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- डॉ० कमलेशकुमार छः चोकसी संस्कृत विभाग, भाषा साहित्य भवन गुजरात यूनिवर्सिटी, अहमदाबाद- ३
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