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दशवैकालिक निर्युक्ति
[ समणी कुसुमप्रज्ञा
आगमों की सबसे प्राचीन पद्यबद्ध व्याख्या निर्युक्ति है। सूत्र के साथ अर्थ का नियोजन एवं निर्णय करना नियुक्ति का प्रयोजन है । निर्युक्ति-साहित्य की यह विशेषता है कि इसमें मूल सूत्र के प्रत्येक शब्द की व्याख्या न करके केवल पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या एवं विश्लेषण ही प्रस्तुत किया गया है । निर्युक्तियों के रचनाकार के बारे में विद्वानों में मतैक्य नहीं है। मुनि पुण्यविजयजी ने भद्रबाहु द्वितीय को नियुक्तिकर्त्ता के रूप में सिद्ध किया हैं लेकिन अनेक प्रमाणों से यह सिद्ध किया जा सकता हैं कि मूल नियुक्तिकार भद्रबाहु प्रथम थे और भद्रबाहु द्वितीय ने निर्युक्ति-साहित्य का विस्तार कर उसे व्यवस्थित रूप प्रदान किया ।
आवश्यक नियुक्ति में आचार्य भद्रबाहु ने १० नियुक्तियां लिखने की प्रतिज्ञा की । उसमें दशर्वकालिक नियुक्ति की रचना का क्रम दूसरा है । दशवेकालिक नियुक्ति की रचना आचारांग, सूत्रकृतांग तथा उत्तराध्ययन आदि की नियुक्तियों से पूर्व हो गई थी इसके अनेक प्रमाण उत्तरवर्ती नियुक्तियों में मिलते हैं ।
कालिक नियुक्ति की उपलब्धि के तीन स्रोत हमें प्राप्त हैं- १ हस्तलिखित प्रतियां २. चूर्णि साहित्य ३. हारिभद्रीय टीका । हस्तलिखित प्रतियों में नियुक्ति एवं भाष्य की गाथाएं साथ में लिखी हुई हैं अतः उसके आधार पर गाथाओं का सही निर्णय संभव नहीं हो सका । चूर्णि एवं टीका में भी गाथा संख्या में बहुत अन्तर है । अगस्त्यसिंह चूर्णि में प्रथम अध्ययन की नियुक्ति में ५७ गाथाएं हैं जबकि हारिभद्रीय टीका में १५१ गाथाएं हैं। हमने पाठ संपादन में गाथाओं के बारे में पादटिप्पण के माध्यम से पर्याप्त चिन्तन किया है। कहीं-कहीं एक ही गाथा को चूर्णिकार निर्युक्ति की तथा टीकाकार उसके बारे में 'आह भाष्यकार:' का उल्लेख करते हैं । कुछ गाथाएं टीकाकार ने अन्य कर्तृकी या उद्धृत गाथा के रूप में स्वीकृत की हैं किन्तु चूर्णि में वे निर्युक्ति-गाथा के रूप में व्याख्यायित हैं । ऐसी विवादास्पद गाथाओं के बारे में भी * हमने पादटिप्पण में समालोचना प्रस्तुत की है। तथा यह खोजने का प्रयत्न किया है
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कि मूल निर्युक्ति में कितनी गाथाएं बाद में प्रक्षिप्त हुई हैं ।
प्रस्तुत संकलन में अन्य ग्रन्थों की कुछ गाथाएं भी प्रसंगानुसार साथ में जोड़ दी गयी हैं । जैसे २५।१, २ ये दोनों गाथाएं विशेषावश्यक भाष्य ( ९५८, ९५९ ) की हैं किंतु हरिभद्र के समय तक ये इस नियुक्ति का अंग बन गईं क्योंकि हरिभद्र गाथा के प्रारम्भ में 'आह नियुक्तिकारः का उल्लेख करते हैं । गा० १८३ निशीथ भाष्य की है । प्रसंग से स्पष्ट प्रतीत होता है कि यह गाथा बाद में प्रक्षिप्त हुई है ।
- संकलन कर्तृ
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