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३१. नामदुमो दवणदुमो, ‘दव्वदुमो चेव होति भावदुमो' ।
एमेव य पुप्फस्स वि, चउव्विहो होति निक्खेवो ।। ३२. दुमा य पादवा रुक्खा, 'विडमी य अगा तरू' ।
कुहा महीरुहा वच्छा, रोवगा भंजगा वि य ।। ३३. पुप्फाणि य कुसुमाणि य, फुल्लाणि तहेव होंति पसवाणि ।
सुमणाणि य सुहुमाणि, य 'पुप्फाणं होंति एगट्ठा" ।। ३४. 'दुमपुफिया य५ आहारएसणा-गोयरे तया उंछे ।
मेस जलोया' सप्पे, वणऽक्ख 'इसु-गोल-पुत्तुदए । ३५. कत्थइ पुच्छति सीसो, कहिंच पुट्ठा कहंति आयरिया ।
सीसाणं तु हितट्ठा, विपुलतरागं तु पुच्छाए ।। ३६. नामं ठवणाधम्मो, दव्वधम्मो य भावधम्मो य ।
एतेसिं नाणत्तं, वोच्छामि अहाणुपुवीए' ।। ३७. दव्वं च 'अत्थिकायो, पयारधम्मो य भावधम्मो य ।
दव्वस्स पज्जवा जे, ते धम्मा तस्स दव्वस्स ।। १. खेत्त काल भाव दुमे (जिच)। २. अगमा विडिमा तरू (हा), अगमा विडवी तरू (अ), अगमा विडिवा तरू (रा)। ३. रुंजगा (हा), जम्भगा (अ)। ४. एगट्टा पुप्फाणं होंति णायव्वा (अ, ब), प्रस्तुत गाथा दोनों चूणियों में गाथा
रूप में उल्लिखित नहीं है। पुष्प के एकार्थक दोनों चूणियों में मिलते हैं अतः पंडित मालवणियाजी का कहना है कि चूणि के एकार्थक शब्दों के आधार पर हरिभद्र ने उसे पद्यबद्ध कर दिया हो, किन्तु ऐसा संभव नहीं लगता क्योंकि स्वयं हरिभद्र अपनी टीका में 'पुष्पैकाथिकप्रतिपादनायाह' ऐसा नहीं कहते तथा चूणि में तो मात्र तीन-चार एकार्थक शब्द हैं, गाथा में कुछ अन्य एकार्थक भी हैं । प्रथम अध्ययन का नाम 'दुमपुफिय' है । अतः द्रुम शब्द के एकार्थक के पश्चात् पुष्प के एकार्थक प्रासंगिक हैं। उसके बाद ३७वीं गाथा में प्रथम अध्ययन के एकार्थक हैं अतः प्रस्तुत गाथा नियुक्तिकार द्वारा ही रचित प्रतीत होती है। सभी हस्त
प्रतियों में यह गाथा उपलब्ध है। ५. ० फियं च (अच), • प्फियाइ (ब)। ६. जलूगा (जिचू, हा) । ७. उसु-पुत्त-गोलुदए (अचू)। ८. कहिंति (अ, रा, अचू)। ९. तु० सूनि १००। १०. ० कायप्पयार० (हा) ।
तुलसी प्रज्ञा
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