Book Title: Tulsi Prajna 1996 04
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 137
________________ टिप्पणी [ सृष्टि अनादि और अनन्त है; फिर भी इस संबंध में अनेकों कयास किये गए हैं। एक कयास मनुस्मृति (१.६८-७३ ) में है जिसके अनुसार एक हजार चतुर्युगी को सृष्टिकाल और इतने ही समय को प्रलय काल कहा गया है। इसको ब्रह्मा का दिन-रात भी कहते हैं । सृष्टिकाल के अलावा भोग काल १४ मनुओं का माना जाता है और एक मनु ७१ चतुर्युगी का । इस प्रकार भोगकाल १४x७१ = ९९४ चतुर्युगी का है जो उपर्युक्त सृष्टिकाल से छह चतुर्युगी कम है । यह भोगकाल सृष्टि में जीव उत्पत्ति और विनाश को माना लगता है, इसलिए शेष छह चतुर्युगी - काल को आधा-आधा सृष्टि के आरंभ और प्रलय होने से पूर्व से समायोजित करते हैं । अर्थात् सृष्टि प्रारंभ के तीन चतुर्युगी काल बीतने पर जीवउत्पत्ति होती है और प्रलय होने के तीन चतुर्युगीशेष रहने पर जीव- विनाश हो जाता है । इस सिद्धांत को मान लेने पर तीन चतुर्युगी - काल – ४,३२००००×३= १२९६०००० वर्ष सृष्टि उत्पत्ति को बीतने पर जीव उत्पत्ति होनी चाहिए किन्तु संकल्प का सृष्टि संवत् १,९७,२९,४९०९६ है जो १२९६००००+१९६०८५३०९६ से ८६४००० वर्ष बढ़ जाता है । यह वढ़ा हुआ समय गणना में दोष माना जा सकता है; किन्तु इसका समाधान सांख्य सप्तति ( ईश्व कृष्ण ) की २२वीं आर्या के ऊपर लिखी युक्ति दीपिका टीका- केचिदाहुः प्रधानादनिर्देश्य स्वरूपं तत्त्वान्तरमुत्पद्यते तत्तो महत्-अर्थात् प्रधान से पूर्व ऐसा तत्त्वान्तर उत्पन्न होता है जिसका स्वरूप निर्देश नहीं हो सकता, उसके बाद महत् उत्पन्न होता है - से सुझाया जा सकता है । इससे यह माना जा सकता है कि सृष्टि उत्पत्ति संवत् आद्यक्षोभ से शुरू है जिसमें ८६४००० वर्ष अनिर्देश्य स्वरूप के हैं और शेष जीवोत्पत्ति से पूर्व का काल । अनिर्देश्य स्वरूप को निरुक्त (१४.४ ) में प्रतिमा और मनुस्मृति (१.८) में आपस् कहा गया है । अन्यत्र जैसे ऋग्वेद (१०.१२१.७) में भी एतत्संबंधी उल्लेख हैं । जैन दृष्टि से सृष्टि का आदि अन्त नहीं है । -- परमेश्वर सोलंकी ] ३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only - प्रो० प्रताप सिंह १३६, सहेली नगर उदयपुर- ३१३००१ तुमसी प्रशा www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194