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बहु विवाह प्रथा प्रचलित थी।
तत्कालीन समाज में जाति-प्रथा प्रचलित थी। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र चारों वर्गों में ब्राह्मणों की श्रेष्ठता थी। उनकी विशेष प्रतिष्ठा थी। पर्व के अवसरों पर उन्हें भोजन कराया जाता था और दक्षिणा भी दी जाती थी। सूत्रधार अपनी पत्नी के उपवास के उपरान्त ब्राह्मण को निमन्त्रित करता है
अज्ज संपण्णं भोअणं णीसवत्तं अ।
अवि अ दक्खिणा का वि दे भविस्सदि ॥२ कुछ ब्राह्मण समृद्ध थे जो दक्षिणा स्वीकार नहीं करते थे। सूत्रधार के द्वारा निमन्त्रित किए जाने पर विदूषक मैत्रेय स्पष्टतया मना कर देता है।
जाति प्रथा होने पर भी जातीय अंकुश शिथिल था। ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर भी लोग विभिन्न धंधों में व्यावृत्त रहते थे। चारुदत्त स्वयं सार्थवाह था तथा उसके पिता एवं पितामह भी सार्थवाह थे। शर्विलक दान दक्षिणा न लेने वाले तथा चारों वेदों के ज्ञाता ब्राह्मण का पुत्र था लेकिन वेश्या मदनिका के प्रेमपाश में बंधकर चौर्य कर्म में संलग्न हो जाता है। चौर्य कर्म के बाद अपने आपको कोशते हुए कहता है--
__ कष्टमेवं मदनिका गणिकार्थे ब्राह्मणकुलं तमसि पातितम् ।'
इस प्रकार स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है कि जाति अथवा वर्ण का अंकुश ढीला पड़ गया था। चारुदत्त तथा शविलक दोनों ने वेश्या से विवाह कर लिया था।
जाति के आधार पर राज्य के ऊंचे पदों से कोई वंचित नहीं किया जाता था। वीरक और चन्दनक नापित तथा चर्मकार होते हुए भी उत्तरदायी पदों पर आसीन थे। सुरक्षा विभाग के प्रमुख अधिकारी थे।
अस्पृश्यता तथा छूआछूत की भावना का अभाव परिलक्षित होता है। एक ही वापी में ब्राह्मण और नीच जाति के लोग भी स्नान करते थे --
वाप्यां स्नाति विचक्षणो द्विजवरो मूोऽपि वर्णाधमः ।' वैश्य लोग व्यापार करते थे। अपने देश के अतिरिक्त विदेशों में भी उनका व्यापार होता था। लेकिन विदूषक की दृष्टि में व्यापारी लोगों पर जनसाधारण का विश्वास नहीं था ऐसी मान्यता प्रचलित थी कि सुवर्णकार चोर होते थे तथा कायस्थ न्यायालय के सर्प माने जाते थे ....
कायस्थ सर्पास्पदम् । २. आर्थिक जीवन
मृच्छकटिक कालीन समाज आर्थिक दृष्टि से समृद्ध था। कृषि और व्यवसाय के अतिरिक्त विभिन्न प्रकार के शिल्प अर्थोपार्जन के प्रमुख साधन थे। जहाजों से समुद्र पार तक व्यापार होता था। धनिकों के यहां सुवर्ण राशि थी, अनेक प्रकार के सुवर्णाभूषण थे। चारुदत्त की धूता की चतुःसमुद्रसारभूता रत्नमाला और वसंतसेना के रत्न एवं आभूषण एवं स्वर्ण की गाड़ी से स्पष्ट संकेत मिलता है कि उस समय ६२
तुलसी प्रज्ञा
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