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चौलुक्य इति वंशोऽभूत्तन्नाम्ना विश्व विश्रुतः । आकरी नररत्नानां सुपर्वश्रेणि संकुलः ।। तद्वंश्या
विश्वशस्याभावभूवुर्भूधनाधना: । वल्गत् त्रिवर्ग संसर्ग प्रियंभावुक वैभवाः ।। श्रीसिंह विक्रम इति क्षितिभृत् क्रमेण । जज्ञ महेश्वर वितीर्ण सुवर्ण सिद्धिः ।। यः क्षोणिचक्रम नृणं विरचय्य दानैः । संवत्सरं निजमवीवृत दासमुद्रं ।। पुष्फोर वीरकोटीर स्तत्पुत्रो हरिविक्रमः । स्वकीर्तिकेतकर्येन सुरभी चक्रिरे दिशः ।। पंचाशीतिर्नुपास्तस्माद्विस्मापक विभा बभुः । न सेहे यत्प्रतापाग्निः शकवंशैदृढेरपि ।। तदन्वयेऽभवत्क्षुण्ण खरदूषण वैभवः । रामोराम इव न्याय सदन मेदिनीश्वरः ।। ततः
सहजरामोऽभाद्योऽश्वलक्षत्रयेश्वरं । हत्वा शकपति पत्तिमिव विश्वेऽप्यभूद्भटः ।। राजा सहजराम के पुत्र दडक्क ने विपाशा नामक राष्ट्र के अधिपति गजराज को जीता और अपने पूर्वज कांचिक व्याल की भांति प्रभूत दानादि देकर निर्धनों को भी दानवीर बना दिया । राजा दड़क्क का पुत्र राजा राजि हुआ जिसने विजयी राजा की तरह रथारूढ़ होकर देवनगर श्री सोमनाथ की यात्रा की और गुर्जर शासक सामंतसिंह की बहिन लीलादेवी से ब्याह रचाकर अयोनिज पुत्र मूलराज को प्राप्त किया
अदीप्यत श्रिया श्रीदः श्रीदड़क्कस्तदात्मजः । यो विपासाख्यराष्ट्रेशं गजं सिंह इवाजयत् ।। भूपालः कांचिकव्यालस्तद्राज्यमथ भेजिवान् । यद्दानैरथिनोऽप्यासन् दानशौंडाः सुरद्रुवत् । राजा राजिरथाजिराजि विजयी राजेव रेजे शुचियो यात्रां विरचय्य देवनगरे श्रीसोमनाथोक्तितः ।। वंश्यां गुर्जर शासनस्य भगिनीं सामन्तसिंह प्रभोर्लीलाख्यां जगदेकवी रजननी लक्ष्मीव व्यूढ़वान् । तयो सूनुरनूनश्रीर्मूलराज इति श्रुतः ।
अयोनि संभवत्वेन सच्चमत्कार कारणं ।। मूलराज ने अपने मामा सामंतसिंह का राज्य पाया और भगवान् सोमेश्वर की कृपा से अनेकों युद्धों में विजय पाई । उसके पुत्र चामुंडराज ने मुडावर जीता। सिंधुराज को युद्ध में पछाड़ा और उसके पुत्र वल्लभराज ने लाट नरेश को विवश करके उसकी लक्ष्मी को प्राप्त किया जिससे उसे भीमदेव की प्राप्ति हुई। भीमदेव के
चंड २१, अंक
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