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पैदा करना पड़ा, जिसने राक्षसों का नाश किया और अन्त में मुनिगण अपना यज्ञ शान्तिपूर्वक सम्पन्न करने में सफल हुए। यह सब अज्ञात कवियों की कल्पनात्मक उपज है, जो मुख्यतः दन्त-कथाओं पर आधारित है। इनसे मिलते-जुलते वर्णन कर्नल टॉड, कनिङ्घम आदि ने संकलित किये हैं। ये कथायें अग्निकुल-कथा के नाम से जानी जाती हैं। आधुनिक मत
क्रुक, जैक्सन, केम्पबेल, डी० आर० भण्डारकर आदि ने भी अग्निकुल-कथा को लिखा है, किन्तु बूलर, राजा श्यामलदास, डॉ० ओझा, वगैरह ने इन कथाओं को अनैतिहासिक माना है। वस्तुत: अग्निकुल कथा आबू (जहां अग्नि कुण्ड स्थित है) के इतिहास का शौर्य समन्वित स्मृति-विवरण है। मध्यकाल तक घटनाओं पर पराकथा रूपी आवरण चढ़ाकर उसे सरस बनाना र अनुसार आबू के राज्याधिकारियों के क्रमवार वैभव तथा पराभव पर पौराणिक परिवेश का मुलम्मा चढ़ाके एक सार-संक्षेप दिया गया है। उसमें से अलौकिक और देविल अंश निकाल देते हैं, तो बाकी बचेगा अर्बुद्ध मण्डल पर (अरब आक्रमणों की की शुरूआत से) बारी-बारी से प्रतिहार, चौलुक्य, परमार और चौहान (देवड़ा) राजकुलों के राज्य करने का गौरवशाली इतिहास ।"
इस संबंध में डॉ० डी० आर० भण्डारकर ने लिखा है ... "इस प्रकार यह स्पष्ट है कि लाट का एक भाग प्रथमतः गुर्जरों के पीछे गुजरात कहलाने लगा, जब यह चौलुक्यों के शासन अन्तर्गत आया । इसका परिणाम अनिवार्यतः यह है कि चौलुक्य गुर्जर थे, जो विदेश से आये थे।" दूसरे लेख में उन्होंने गुर्जरों के बारे में लिखा है कि 'इस जाति के दो झुण्ड थे, जो दो भिन्न-भिन्न अवधियों में अपना देश छोड़कर परदेश में जा बसे ।.....'दूसरा स्वदेश त्याग कल्याण कटक यानि कनौज से दसवीं सदी (ईस्वी) के मध्य में हुआ, लेकिन वे दक्षिण में गुजरात से आगे न बढ़े।' 'यह सामान्यतः चौलुक्य या सोलंकी के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।' एक दानपत्र में मूलराज चौलुक्य ने अपने को कांची के स्वामी (व्यालकांची-प्रभु) का वंशज बताया है । कांजीवरम् दक्षिण भारत का एक नगर है। इसका निष्कर्ष यह हुआ कि गुर्जरों का आगमन कैसे भी हुआ हो, किन्तु मूलराज के पूर्वजों को तो दक्षिण से ही जोड़ना उचित है। ___ श्रवण-बेलगोला स्मरणलेख सूचित करता है कि गांग नायक मारसिम्ह (द्वितीय) ने गुर्जरपति का विरुद इसलिये धारण किया कि उसने गुर्जर-भूमि को जीता था और गुर्जरपति को हराया था । स्पष्ट है कि चौलुक्य राजा गुर्जरपति इसलिये कहलाते थे कि गुर्जर-प्रदेश (गुजरात) पर वे राज्य करते थे । वि० सं० ९९९ में मूलराज चौलुक्य ने सांचोर पर अधिकार किया। उसके शासनकाल का (वि० सं० १०५१ का) एक दानपत्र बालेरा से मिला है, जिसमें वरणक (वर्तमान में सांचोर तहसील का वरणवा) गांव मूलराज द्वारा दान में दिये जाने का उल्लेख है। जागीर अधिग्रहण तक बालेरा एक सांसण गांव था, इससे पाया जाता है कि बालेरा पड़ोसी गांव वरणक का ही
खंड २१, अंक
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