Book Title: Tulsi Prajna 1996 04
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 107
________________ मार कर ख्याति पाई। यह शकपति शककूल (काबूल) का शाखानुशाखी (शेख) राजा है जिसका विवरण श्री माणिक्य सूरि विरचित कालकाचार्य-कथा में उपलब्ध __ सहजराम का पुत्र दड़क्क हुआ जिसने विपासा नाम के राष्ट्र (व्यासनदी के दोनों तरफ बसा राज्य) के राजा गज को परास्त किया और अपने पूर्वज ‘कांचिव व्याल' की तरह वहां इतना दान दिया कि याचक भी दानवीर हो गये । उसके पुत्र राजा राजि ने देवनगर श्री सोमनाथ की यात्रा आयोजित कर सम्मान पाया तत: सहजरामोऽभाद्योऽश्बलक्षत्रयेश्वरम् । हत्वा शकपति पत्ति मिव विश्वेऽप्यभूद्भटः ।। मदीप्यत श्रिया श्रीदः श्री दंडक्कस्तदात्मजः । य विपासाख्यराष्ट्रेशं गजं सिंह इवाजयत् ।। भूपालः कांचिकव्यालस्तद्राज्यमथ भेजिवान । यद्दानैरथिनोऽप्यासन् दानशौंडाः सरद्रुवत् ।। राजा राजिरथाजि राजि विजयी राजेवरेजे शुचि-- यो यात्रां विरचय्य देवनगरे श्री सोमनाथोक्तितः ।। वंश्यां गुर्जर शासनस्य भगिनीं सामंतसिंह प्रभो लीलाख्यां जगदेकवीरजननी लक्ष्मीमिव व्यूढ़वान् । उत्तरी भारत में यह समय बड़ा उथल-पुथल भरा रहा। दक्षिण का राष्ट्रकूट इन्द्रराज (तृतीय) वि० सं० ९७१-९७३ तक मान्यखेट की गद्दी पर था । राष्ट्रकूट गोविन्द (चतुर्थ) के वि० सं० ९८७ काम्बे ताम्रपत्र में लिखा है कि इन्द्रराज उत्तरीभारत के अपने अभियान में उज्जैन में ठहरा और महाकाल की पूजा-अर्चना की। तत्पश्चात् उसके अश्वों ने अथाह यमुना को पार किया और उसने विपक्षी नगर कन्नौज को पूर्णतया ध्वस्त किया। डॉ. ओझा लिखते हैं, "......"रघुवंशी प्रतिहार राजा महीपाल भागा, जिसका इन्द्रराज के अफसर चालुक्य नरसिंह ने पीछा किया । खजुराहो के चन्देलों के लेख से भी महीपाल के हार कर भागने की पुष्टि होती है। दूसरी तरफ विदग्धराज ने हस्तिकुण्डी गंवा कर भी हिम्मत न हारी और वह अपना खोया हुआ राज्य वापिस लेने को उत्कंठित रहा। शीघ्र ही उसके हाथ एक स्वर्णिम मौका लग गया । इन्द्रराज (तृतीय) का उपरोक्त हमला विदग्धराज के लिये एक वरदान के रूप में आया। ऊपर से सोने में सुहागा यह कि उस समय तक मंडलीक के नाते दडस्क अपने स्वामी महीपाल (वि० सं० ९७१-९८७) की सहायता में अपने राज्य से दूर, कन्नोज में था। पीछे से विदग्धराज ने दड़कक की राजधानी बसन्तपुर पर धावा बोल, न केवल हस्तिकुण्डी को पुनः प्राप्त किया, बल्कि अर्बुद मंडल को भी दबा लिया। दड़क्क के परिजनों ने तीव्र गति से भाग कर प्राण बचाये और टोडा (टोंक) तक मुड़कर भी न देखा ।१९ किन्तु शीघ्र ही परिस्थिति बदल गई और दड़क्क के पुत्र राजाराजि ने विजयी 'तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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