Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unke Das Dharma
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 9
________________ vii है। तप का तात्पर्य है मन का मार्जन करना और संचित कर्मों की निर्जरा करना, उन्हें समय के पहले पकने देना। यहां आहार संयम पर विशेष बल दिया है। इसमें उपवास, अनशन आदि अनेक प्रकार के तप किये जाते हैं। ८. उत्तम त्याग -- तप के बाद साधक का मन अपने शरीर से निरासक्त हो जाता है और वह त्याग की ओर बढ़ जाता है। त्याग का अर्थ है -- छोड़ना अर्थात् राग-द्वेषादि विकार भावों को छोड़ देना और दानादि वृत्ति से धन को विसर्जित करना। इसके साथ यह भी भाव जुड़ा हुआ है कि धनार्जन शुद्ध साधनों से ही होना चाहिए। ९. उत्तम आकिञ्चन्य -- त्याग का आचरण करने के बाद साधक के पास स्वयं के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं बचता। वह बिल्कल अपरिग्रही हो जाता है, निर्द्वन्द्व हो जाता है। तब मन, वचन, काय की अकिञ्चितता और उपकरण पर जोर दिया जाता है। १०. उत्तम ब्रह्मचर्य -- उत्तम आकिञ्चन्य को पा लाने के बाद साधक निष्परिग्रही हो जाने के कारण आत्मरमण करने की स्थिति में आ जाता है। मोह ममता विगलित हो जाती है, काम-गुणों पर विजय प्राप्त हो जाती है। परिणामतः शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध का अन्त हो जाता है। ध्यान की परिपूर्ण साधना यहीं होती है। इस प्रकार पर्युषण पर्व किंवा दश लक्षण महापर्व उत्तम क्षमादि धर्मों पर चिन्तन करने का एक सुन्दर अवसर प्रदान करता है जिससे जीवन की वगिया खिल सकती है और चारों ओर सुगन्ध बिखेरी जा सकती है। जीवन को जीवन के रूप में पहचानने का यह एक स्वर्णिम अवसर है, मानवता और अहिंसा को अपने आप में समाहित करने का सर्वोत्तम साधन है इसीलिए इसे आध्यात्मिक पर्व कहा जाता है। इस आध्यात्मिक पर्व की देहरी पर खड़े होकर हम तीर्थङ्कर महावीर और उनके दश धर्म शीर्षक पुस्तक अपने पार्श्वनाथ विद्यापीठ से प्रकाशित कर रहे हैं। इसमें हमने दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं को समन्वित कर उसमें समग्रता लाने का प्रयत्न किया है। आशा है, सुधी पाठक इसे पूरी हृदय से स्वीकार करेंगे। पार्श्वनाथ निर्वाण दिवस दिनांक १८.८.१९९९ प्रोफेसर भागचन्द्र जैन भास्कर निदेशक Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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