________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 17 ननु प्रशमादयो यदि स्वस्मिन् स्वसंवेद्याः श्रद्धानमपि तत्त्वार्थानां किन्न स्वसंवेद्यं ? यतस्तेभ्योनुमीयते। स्वसंवेद्यत्वाविशेषेपि तैस्तदनुमीयते न पुनस्ते तस्मादिति कः श्रद्दधीतान्यत्र परीक्षकादिति चेत्, नैतत्सारं, दर्शनमोहोपशमादिविशिष्टात्मस्वरूपस्य तत्त्वार्थश्रद्धानस्य स्वसंवेद्यत्वानिश्चयात्। स्वसंवेद्यं पुनरास्तिक्यं तदभिव्यंजकं प्रशमसंवेगानुकंपावत् कथंचित्ततो भिन्नं तत्फलत्वात् / तत एव फलतद्वतोरभेदविवक्षायामास्तिक्यमेव तत्त्वार्थश्रद्धानमिति, तस्य तद्वत्प्रत्यक्षसिद्धत्वात्तदनुमेयत्वमपि न विरुध्यते। मतांतरापेक्षया च स्वसंविदितेपि तत्त्वार्थश्रद्धाने विप्रतिपत्तिसद्भावात्तन्निराकरणाय तत्र प्रशमादिलिंगादनुमाने दोषाभावः। सम्यग्ज्ञानमेव हि सम्यग्दर्शनमिति हि केचिद्विप्रवदंते तान् प्रति ज्ञानात् भेदेन दर्शनं प्रशमादिभिः कार्यविशेषैः प्रकाश्यते। ज्ञानकार्यत्वात्तेषां न तत्प्रकाशकत्वमिति चेन्न, अज्ञाननिवृत्ति-फलत्वात् ज्ञानस्य। संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य के समुदाय रूप हेतु के अनैकान्तिक दोष के उद्भावन का खण्डन कर दिया गया है अर्थात् प्रशम आदि.हेतु में अनैकान्तिक दोष नहीं है। शंका : यदि प्रशमादि भाव अपनी आत्मा में स्वसंवेद्य (स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से जाने जाते) हैं-तो तत्त्वार्थ श्रद्धान भी अपनी आत्मा में स्वसंवेद्य क्यों नहीं है-जिससे कहते हो कि तत्त्वार्थ श्रद्धान प्रशमादि के द्वारा जाना जाता है ? स्वसंवेद्यत्व की अपेक्षा तत्त्वार्थ श्रद्धान में और प्रशमादि गुणों में समानता होने पर भी कहा जाता है कि प्रशमादिक के द्वारा तत्त्वार्थ श्रद्धान अभिव्यक्त होता है। श्रद्धान के द्वारा प्रशम आदि अभिव्यक्त नहीं होते हैं। अज्ञानी को छोड़कर ऐसा दूसरा कौन विश्वास करेगा ? अर्थात् कोई नहीं करेगा। अर्थात्-प्रशमादिके द्वारा तत्त्वार्थश्रद्धान गम्य है, स्वसंवेदन के द्वारा तत्त्वार्थ श्रद्धान गम्य नहीं है, इस कथन का विश्वास अन्धश्रद्धानी के अतिरिक्त भला कौन विचारशील करेगा ? कोई नहीं करेगा। _____समाधान : इस कथन में कोई सार नहीं है क्योंकि दर्शन मोहनीय कर्म के उपशम, क्षय और क्षयोपशम से उत्पन्न विशिष्ट आत्मस्वरूप रूप तत्त्वार्थश्रद्धान का स्वसंवेदन के द्वारा निश्चय नहीं होता। तत्त्वार्थश्रद्धान सम्यग्दर्शन अत्यन्त सूक्ष्म गुण है। अत: वह सामान्य मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का विषय न होने से स्वसंवेदन प्रत्यक्ष नहीं होता अपितु प्रशमादि गुणों के द्वारा अभिव्यक्त होता है। . प्रशम, संवेग और अनुकम्पा के समान स्वसंवेद्य आस्तिक्य गुण भी तत्त्वार्थ श्रद्धान रूप सम्यग्दर्शन का अभिव्यञ्जक है। ये चारों गुण सम्यग्दर्शन के फल हैं, फल होने से कथंचित् ये सम्यग्दर्शन से भिन्न हैं और कथंचित् अभिन्न हैं। अत: कथंचित् फल और फलवान में अभेद विवक्षा करने पर आस्तिक्य भाव ही तत्त्वार्थ श्रद्धान है तथा आस्तिक्य भाव के समान तत्त्वार्थ श्रद्धान के स्वसंवेदन प्रत्यक्षत्व सिद्ध हो जाने से आस्तिक्य के द्वारा श्रद्धान को अनुमेय मानना विरुद्ध नहीं है। किञ्च : तत्त्वार्थ श्रद्धान के स्वसंवेदन प्रत्यक्ष हो जाने पर भी मतान्तर की अपेक्षा (कोई सम्यग्दर्शन को स्वसंवेदन प्रत्यक्ष मानते हैं, कोई नहीं मानते) विवाद का सद्भाव होने से उस विवाद का निराकरण करने के लिए प्रशमादि गुणों के द्वारा सम्यग्दर्शन का अनुमान कर लेने में कोई दोष नहीं है। जैसे कोई "ज्ञान ही सम्यग्दर्शन है" -ऐसा विवाद करते हैं, उनके प्रति ज्ञान गुण से भिन्न दर्शन को प्रशमादि कार्य-विशेषों के द्वारा अभिव्यक्त (प्रकाशित) किया गया है।