________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 15 द्रव्यक्षेत्रकालभवभावपरिर्वतनरूपात् संसारागीरुता संवेगः / त्रसस्थावरेषु प्राणिषु दयानुकंपा। जीवादितत्त्वार्थेषु युक्त्यागमाभ्यामविरुद्धेषु याथात्म्योपगमनमास्तिक्यं / एतानि प्रत्येकं समुदितानि वा स्वस्मिन् स्वसंविदितानि, परत्र कायवाग्व्यवहारविशेषलिंगानुमितानि सरागसम्यग्दर्शनं ज्ञापयंति, तदभावे मिथ्यादृष्टिष्वसंभवित्वात्, संभवे वा मिथ्यात्वायोगात्। मिथ्यादृशामपि केषांचित्क्रोधाद्यनुद्रेकदर्शनात् प्रशमोऽनैकांतिक इति चेन्न, तेषामपि कोई जीव उत्सर्पिणी के प्रथम समय में उत्पन्न हुआ और आयु के समाप्त हो जाने पर मर गया। पुनःवही जीव दूसरी उत्सर्पिणी के दूसरे समय में उत्पन्न हुआ, और अपनी आयु के समाप्त होने पर मर गया। इस प्रकार क्रम से उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के काल को जन्म और मरण कर समाप्त किया, उसको काल परिवर्तन कहते हैं अर्थात् जन्म और मरण का नैरन्तर्य लेना चाहिए। सर्वप्रथम, प्रथम नरक के प्रथम पाथड़े में दस हजार वर्ष की आयु लेकर जन्म लिया, पुन: दस हजार वर्ष के जितने समय हैं-उतनी बार दस हजार वर्ष की आयु धारण कर-कर के जन्मा और मरातत्पश्चात् दस हजार वर्ष एक समय, दो समय आदि की क्रम से वृद्धि करते हुए तैंतीस सागर की आयु पूर्ण करना, इसी प्रकार तिर्यंच एवं मनुष्यों की जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त से तीन पल्य तक और देवों की दस हजार वर्ष से इकतीस सागर तक की आयु धारण कर जन्म-मरण करना भव परिवर्तन है। इकतीस सागर से उत्कृष्ट आयु वाले देव सम्यग्दृष्टि ही होते हैं, उनका संसार-परिभ्रमण नहीं होता। * जिसमें श्रेणी के असंख्यातवें भाग योग असंख्यात लोक प्रमाण कषायबंधाध्यवसान और उससे भी असंख्यात लोक गुणित अनुभागबंधाध्यवसान स्थानों में पूर्वोक्त क्रम से संज्ञी जीव के अन्त:कोटा कोटी प्रमाण कर्मों की स्थिति से लेकर उत्कृष्ट तीस कोटा कोटी आदि स्थिति पूर्ण की जाती है; अनन्त वर्षों में पूर्ण होने वाले इस सम्पूर्ण संसरण का नाम भाव परिवर्तन है। इस प्रकार दुःखमय इस द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव परिवर्तनरूप संसार से भयभीत होना संवेग भाव है। त्रस और स्थावर जीवों में दया रखना अनुकम्पा है। युक्ति और आगम से अविरुद्ध जीवादितत्त्वार्थों में वास्तविकत्व को स्वीकार करना आस्तिक्य गुण है। .. प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य-इन चारों में से एक वा चारों एकत्र होकर अपनी आत्मा में स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे तथा दूसरों में शरीर की चेष्टा, वचन व्यवहार आदि विशेष ज्ञापक चिह्नों से अनुमित होकर सराग सम्यग्दर्शन के ज्ञापक होते हैं। अर्थात् स्वसंवेदन से जाने गये ये अपनी आत्मा में, और वचन आदि क्रियाओं से अनुमान से जाने गए ये दूसरे में सराग सम्यग्दर्शन का अनुमान कराते हैं। सम्यग्दर्शन गुण के अभाव में मिथ्यादृष्टि जीवों में प्रशम आदि गुणों की असंभवता है। यदि प्रशम आदि गुणों का होना संभव है तो मिथ्यादृष्टिपना सभव नहीं है।