________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 16 सर्वथैकांतेऽनंतानुबंधिनो मानस्योदयात्। स्वात्मनि चानेकांतात्मनि द्वेषोदयस्यावश्यंभावात् पृथिवीकायिकादिषु प्राणिषु हननदर्शनाच्च / एतेन संवेगानुकंपयोर्मिथ्यादृष्टिष्वसंभवकथनादनैकांतिकता हता, संविग्नस्यानुकंपावतो वा निःशंकप्राणिघाते प्रवृत्त्यनुपपत्तेः। सदृष्टेरप्यज्ञानात्तत्र तथा प्रवृत्तिरिति चेत्, व्याहतमिदं 'सदृष्टिश्च जीवतत्त्वानभिज्ञश्चे'ति तदज्ञानस्यैव मिथ्यात्वविशेषरूपत्वात्। परेषामपि स्वाभिमततत्त्वेष्वास्तिक्यस्य भावादनैकांतिकत्वमिति चेत् न, सर्वथैकांततत्त्वानां दृष्टेष्टबाधितत्वेन व्यवस्थानायोगादेकांतवादिनां भगवदर्हत्स्याद्वादश्रद्धानविधुराणां नास्तिकत्वनिर्णयात्। तदुक्तं। "त्वन्मतामृतबाह्यानां सर्वथैकांतवादिनाम्। आत्माभिमानदग्धानां स्वेष्टं दृष्टेन बाध्यते” इति / तदनेन प्रशमादिसमुदायस्यानैकांतिकत्वोद्भावनं प्रतिक्षिप्तं / शंका : किन्हीं-किन्हीं मिथ्यादृष्टियों में भी क्रोधादि का अनुद्रेक देखा जाता है.अत: सम्यग्दर्शन की सिद्धि के लिए दिया गया प्रशम हेतु अनैकान्तिक (पक्ष-विपक्ष दोनों में जाने से व्यभिचारी) है। समाधान : ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योंकि उन मिथ्यादृष्टियों में भी अपने माने गए सर्वथा एकान्त पक्ष में अनन्तानुबन्धी मान कषाय का उदय पाया जाता है। अनेकान्तात्मक निजात्मा में तथा स्याद्वाद सिद्धान्त में द्वेष का उदय अवश्यंभावी (अवश्य रहता) है। और उन मिथ्यादृष्टियों में पृथिवीकायादि प्राणियों का घात भी दृष्टिगोचर होता है। इस कथन से संवेग और अनुकम्पा की मिथ्यादृष्टियों में असंभवता का कथन होने से व्यभिचार दोष का निराकरण कर दिया गया है। अर्थात्-सम्यग्दर्शन के गुण प्रशम-संवेग मिथ्यादृष्टियों में नहीं पाये जाते। संवेगशील और अनुकम्पा वाले जीव की निशंक होकर प्राणिघात में प्रवृत्ति की अनुपपत्ति है अर्थात् संसार से भयभीत और अनुकम्पाशील प्राणी की प्राणिघात में अनर्गल प्रवृत्ति नहीं हो सकती। प्रश्न : सम्यग्दृष्टि के भी अज्ञान भाव से जीवघात में प्रवृत्ति हो सकती है ? उत्तर : “सम्यग्दृष्टि जीव तत्त्व का ज्ञाता होता है" इस कथन से सम्यग्दृष्टि के अज्ञान भाव से जीवादि घात में प्रवृत्ति होती है, इसका खण्डन कर दिया है। क्योंकि, जीवतत्त्व में अज्ञान का होना ही मिथ्यात्व का एक विशेष स्वरूप है। शंका : मिथ्यादृष्टियों के भी अपने-अपने अभिमत तत्त्वों में आस्तिकत्व का सद्भाव पाया जाता है, अतः सम्यग्दर्शन का आस्तिक्यगुण अनैकान्तिक दोष से दूषित है ? समाधान : यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि उनके द्वारा अभिमत सर्वथा एकान्तरूप तत्त्वों की प्रत्यक्ष और अनुमान आदि प्रमाणों से बाधित होने के कारण व्यवस्था नहीं हो सकती है। अतः भगवान अर्हन्तदेव के द्वारा उपदिष्ट स्याद्वाद श्रद्धान से विधुर (रहित) एकान्तवादियों के नास्तिकत्व का ही निर्णय है। अर्थात् वीतराग देव कथित तत्त्व से पराङ्मुख एकान्तवादी मिथ्यादृष्टि नास्तिक ही हैं। समन्तभद्र स्वामी ने कहा भी है- "हे जिनेन्द्र देव। आपके मतरूपी अमृत से बहिर्भूत, स्वकीय तत्त्वों के अभिमान से दग्ध, सर्वथा एकान्तवादियों का इष्टतत्त्व (अभीष्ट पदार्थ) प्रत्यक्ष प्रमाण से बाधित है।" इस कथन के द्वारा प्रशम,