Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Kailashchandra Shastri
Publisher: Prakashchandra evam Sulochana Jain USA
View full book text
________________
D:IVIPULIBO01.PM65
(13)
(तत्त्वार्थ सूत्र
अध्याय .D
(तत्त्वार्थ सूत्र
। प्रथम अध्याय -
मंगलाचरण मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम।
ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये।। अर्थ - जो मोक्षमार्ग का प्रवर्तक है, कर्मरूपी पर्वतों का भेदन करनेवाला है और समस्त तत्वों का जानता है, उसे मैं उन गुणों की प्राप्ति के लिए नमस्कार करता हूँ।
विशेषार्थ - यहाँ तीन विशेषणों के साथ आप्त की स्तुति की है। प्रथम विशेषण से आप्त को परम हितोपदेशी बतला कर जगत के प्राणियों के प्रति उनका परम उपकार दर्शाया है। दूसरे विशेषण से आप्त को निर्दोष
और वीतराग बतलाया है; क्योंकि जगत के समस्त जीवों को अपने स्वरूप से भ्रष्ट करनेवाले मोहनीय कर्म तथा ज्ञानावरण , दर्शनावरण और अन्तराय कर्मका नाश करके ही आप्त होता है। तीसरे विशेषण से अपने गुण पयार्य सहित समस्त पदार्थों को एक साथ जानने के कारण आप्त को सर्वज्ञ बतलाया है । इस तरह परम हितोपदेशी, वीतराग और सर्वज्ञ ही आप्त हैं । उसी के उपदेश से शास्त्र की उत्पत्ति होती है, उसका यथार्थ ज्ञान होता है, तथा उसी के द्वारा सर्वज्ञता और वीतरागता की प्राप्ति होती है। अतः ग्रन्थ के प्रारम्भ में ऐसे आप्त को नमस्कार करना उचित ही है।
अब ग्रन्थकार मोक्ष का उपाय बतलाते हैंसम्यग्दशर्न ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः ||१||
(तत्त्वार्थ सूत्र *************अध्याय -D
अर्थ- सम्यग्दशर्न, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों मिले हुए मोक्ष का मार्ग हैं।
विशेषार्थ- इस सूत्र का पहला शब्द सम्यक् का अर्थ है- प्रशंसा । यह शब्द प्रत्येक के साथ लगाना चाहिये। यानी सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान
और सम्यकचारित्र । किन्तु ये तीनों अलग अलग मोक्ष के मार्ग नहीं हैं, बल्कि तीनों का मेल ही मोक्ष का मार्ग है । इसी से सूत्र में एकवाची ‘मार्गः' शब्द रखा है।
पदार्थों के सच्चे स्वरूप के श्रद्धान को 'सम्यग्दर्शन' कहते हैं। पदार्थों केसच्चे स्वरूप केजानने को 'सम्यग्ज्ञान' कहते हैं और जिन कार्यों के करने से कर्मबन्ध होता है उन कार्यों के न करने को 'सम्यक्चारित्र' कहते हैं।
शंका - सूत्र में ज्ञान को पहले रखना चाहिए, क्योंकि ज्ञानपूर्वक ही पदार्थों का श्रद्धान होता है । तथा दर्शन से ज्ञान में थोड़े अक्षर हैं। इसलिए भी अल्प अक्षर वाले ज्ञान को दर्शन से पहले करना चाहिये ।
समाधान - जैसे मेघ-पटल के हटते ही सूर्य का प्रताप और प्रकाश दोनों एक साथ प्रकट होते हैं वैसे ही दर्शनमोहनीय कर्म के उपशम, क्षयोपशम अथवा क्षय से जिस समय आत्मा में सम्यग्दर्शन प्रकट होता है उसी समय आत्मा के कुमति और कुश्रुत ज्ञान मिटकर मतिज्ञान और श्रुतज्ञान रूप होते हैं। अतः सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान में काल भेद नहीं है, दोनों एक साथ होते हैं । तथा यद्यपि ज्ञान अल्प अक्षर वाला है किन्तु अल्प अक्षर वाले से जो पूज्य होता है वही प्रधान होता है । दर्शन और ज्ञान में दर्शन ही पूज्य है। क्योंकि सम्यग्दर्शन के होने पर ही मिथ्याज्ञान सम्यग्ज्ञान हो जाता है। अतः पूज्य होने से सम्यग्दर्शन को पहले कहा है उसके बाद ज्ञान को रखा है । तथा सम्यग्ज्ञान पूर्वक ही सम्यक्चारित्र होता है। इसी से चारित्र को अन्त में रखा है ॥१॥
अब सम्यग्दर्शनका लक्षण कहते हैं
**********4
1
*
*
*
*
***