Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Kailashchandra Shastri
Publisher: Prakashchandra evam Sulochana Jain USA
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D: IVIPUL\BO01.PM65 (107)
तत्त्वार्थ सूत्र ++++++++++++अध्याय
अर्थ - क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंश-मशक, नाग्नय, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कार- पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान, और अदर्शन ये बाईस परीषह हैं । मोक्षार्थी को इन्हें सहना चाहिये । अत्यंत भूख की पीड़ा होने पर धैर्य के साथ उसे सहना क्षुधा परीषह का जय है ॥ १ ॥ प्यास की कठोर वेदना होते हुए भी प्यास के वश में नहीं होना पिपासा परीषह जय है ॥२॥ शीत से पीड़ित होते हुए भी शीत का प्रतिकार करने की भावना भी मन में न होना शीत परीषह जय है ॥३॥ ग्रीष्मऋतु आदि के कारण गर्मी का घोर कष्ट होते हुए भी उससे विचलित न होना उष्ण परीषह जय है ॥४॥ डांस, मच्छर, मक्खी, पिस्सु वगैरह के काटने पर भी परिणामों में विषाद का न होना दंश मशक परीषह जय है ॥५॥ माता के गर्भ से उत्पन्न हुए बालक की तरह निर्विकार नग्नरूप धारण करना नग्न परीषह जय है ॥६॥ अरति उत्पन्न होने के अनेक कारण होते हुए भी संयम मे अत्यन्त प्रेम होना अरति परीषह जय है ॥७॥ स्त्रियों के द्वारा बाधा पहुँचायी जाने पर भी उनके रूप के देखने की अथवा उनका आलिंगन करने की भावना का भी न होना स्त्री परीषह जय है ॥८॥ पवन की तरह एकाकी बिहार करते हुए भयानक वन मे भी सिंह की तरह निर्भय रहना और नंगे पैरों मे कंकर पत्थर चुभने पर भी खेद खिन्न न होना चर्या परीषह जय है ॥९॥ जिस आसन से बैठे हों उससे विचलित न होना निषद्या परीषह जय है ॥ १० ॥ रात्रि में ऊँची-नीची कठोर भूमि पर पूरा बदन सीधा रखकर एक करवट से सोना शय्या परीषह जय है ॥११॥ अत्यन्त कठोर वचनों को सुन कर भी शान्त रहना आक्रोश परीषह जय है ॥ १२ ॥ जैसे चन्दन को जलाने पर भी वह सुगन्ध ही देता है वैसे ही अपने को मारने पीटने वालों पर भी क्रोध न करके उनका भला ही विचारना वध परीषह जय है ॥१३॥ आहार वगैरह के न मिलने से भले ही प्राण चले जायें किन्तु किसी से याचना करना तो दूर, मुँह पर दीनता का भाव भी न लाना याचना परीषह जय है ***++++++++ 189 +++++++++++
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॥१४॥ आहारादि का लाभ न होने पर भी वैसा ही सन्तुष्ट रहना जैसा लाभ होने पर यह अलाभ परीषह जय है ॥ १५ ॥ शरीर में अनेक व्याधियाँ होते हुए भी उनकी चिकित्सा का विचार भी न करना रोग परीषह जय है ॥ १६ ॥ तृण- कांटे वगैरह की वेदना को सहना तृण स्पर्श परीषह जय है ॥१७॥ अपने शरीर मे लगे हुए मल की ओर लक्ष्य न देकर आत्म भावना मे ही लीन रहना मल परीषह जय है ॥१८॥ सम्मान और अपमान में समभाव रखना और आदर सत्कार न होने पर खेदखिन्न न होना, सत्कार पुरस्कार जय है ॥ १९ ॥ अपने पांडित्य का गर्व न होना प्रज्ञा परीषह जय है ॥२०॥ यदि कोई तिरस्कार करे, तू अज्ञानी है, कुछ जानता नहीं है- तो उससे खिन्न न होकर ज्ञान की प्राप्ति का ही बराबर प्रयत्न करते रहना अज्ञान परीषह जय है ॥२१॥ श्रद्धा से च्युत होने के निमित्त उपस्थित होने पर भी मुनि मार्ग में बराबर आस्था बनाये रखना अदर्शन परीषह जय है ॥२२॥ इस तरह इन बाईस परीषहों को संक्लेश रहित चित्त से सहन करने से महान् संवर होता है ॥ ९ ॥
किस गुणस्थान मे कितनी परिषह होती हैं यह बतलाते हैंसूक्ष्मसाम्पराय-छद्मस्थवीतरागयोश्चतुर्दश ||१०||
अर्थ-सूक्ष्मसाम्पराय नाम के दसवें गुणस्थान में और छद्मस्थ वीतराग यानी ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान में क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध, अलाभ, रोग, तृण स्पर्श, मल, प्रज्ञा और अज्ञान ये चौदह परीषह होती हैं। मोहनीय कर्म के उदय से होने वाली आठ परिषह नहीं होतीं, क्योकि ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान में मोहनीय कर्म का उदय ही नहीं है। दसवें में केवल लोभ संज्वलन कषाय का उदय है। वह भी अत्यन्त सूक्ष्म है अतः दसवाँ गुणस्थान भी वीतराग छद्मस्थ के ही तुल्य है। इसलिए उसमें भी मोहजन्य आठ परिषह नहीं होतीं ॥१०॥
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