Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Kailashchandra Shastri
Publisher: Prakashchandra evam Sulochana Jain USA

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Page 47
________________ D:WVIPUL\B001.PM65 (47) तत्त्वार्थ सूत्र ********* ** अध्याय - से दो-दो नदियाँ निकली हैं। सो पद्म हद के पूर्व द्वार से गंगा नदी, पश्चिम द्वार से सिन्धु नदी, और उत्तर द्वार से रोहितास्या नदी निकली है। दूसरे महापद्म हद के दक्षिण द्वार से रोहित और उत्तर द्वार से हरिकान्ता नदी निकली है। तीसरे तिगिञ्छ हद के दक्षिण द्वार से हरित् और उत्तर द्वार से सीतोदा नदी निकली है। चौथे केसरी ह्रद के दक्षिण द्वार से सीता और उत्तर द्वार से नरकान्ता नदी निकली है । पाँचवे महापुण्डरीक हद के दक्षिण द्वार से सुवर्णकूला, पूर्व द्वार से रक्ता और पश्चिम द्वार से रक्तोदा नदी निकली है ॥ २२ ॥ इन नदियों का परिवार बतलाते हैंचतुर्दश-नदी-सहस्त्र परिवृता गंगा-सिन्ध्वादयो नद्य:||२३|| अर्थ- गंगा और सिन्धु नदी चौदह चौदह हजार परिवार नदियों से घिरी हुई हैं। इस सूत्र में जो 'नदी' शब्द दिया है वह यह बतलाने के लिए दिया है कि इन नदियों का परिवार आगे आगे दूना दूना होता गया है। अत: रोहित् और रोहितास्या की परिवार नदी अठ्ठाईस-अठ्ठाईस हजार हैं। हरित् और हरिकान्ता की परिवार नदी छप्पन हजार हैं। सीता और सीतोदा की परिवार नदी एक लाख बारह हजार , एक लाख बारह हजार है।।२३॥ अब भरत क्षेत्र का विस्तार बतलाते हैंभरत: षड्विंशति- पंचयोजन-शत-विस्तार:षड्__ चैकोनविंशति-भागा योजनस्य ||२४|| अर्थ- भरत क्षेत्र का विस्तार पाँच सो छब्बीस योजन और एक योजन के उन्नीस भागों में से छ: भाग प्रमाण है। यह विस्तार दक्षिण से उत्तर तक है ॥२४॥ अन्य क्षेत्रों का विस्तार बतलाते हैंतद्-द्विगुण-द्विगुण-विस्तारा वर्षधर-वर्षा विदेहान्ताः ||२७|| तत्त्वार्थ सूत्र ******* अध्याय : अर्थ-आगे के पर्वत और क्षेत्र विदेह क्षेत्र तक भरत क्षेत्र से दूने दूने विस्तार वाले हैं। अर्थात् हिमवान पर्वत का विस्तार भरत क्षेत्र से दूना है। हिमवान् पर्वत के विस्तार से हैमवत क्षेत्रका विस्तार दूना है। हैमवत क्षेत्र के विस्तार से महाहिमवान् पर्वत का विस्तार दूना है। महा हिमवान् पर्वत से हरिक्षेत्र का विस्तार दूना है। हरि क्षेत्र के विस्तार से निषध पर्वत का विस्तार दूना है। और निषध पर्वत से विदेह क्षेत्र का विस्तार दूना है।।२५॥ आगे के पर्वतो और क्षेत्रो का विस्तार बतलाते हैं। उत्तरा दक्षिणतुल्याः ||२६|| अर्थ- उत्तर के ऐरावत से ले कर नील तक जितने क्षेत्र और पर्वत हैं, उनका विस्तार वगैरह दक्षिण के भारत आदि क्षेत्रों के समान ही जानना चाहिए । यह नियम दक्षिण भागका जितना भी वर्णन किया है उस सबके सम्बन्धमें लगा लेना चाहिए । प्रतः उत्तर के ह्रद और कमल आदि का विस्तार वगैरह तथा नदियों का परिवार वगैरह दक्षिण के समान ही जानना चाहिए । सारंश यह है कि भरत और ऐरावत, हिमवान् और शिखरी, हैमवत और हैरण्यवत महाहिमवान और रुक्मि, हरिवर्ष और रम्यक तथा निषध और नीलका विस्तार, इनके हृदों और कमलोंकी लम्बाई चौड़ाई वगैरह तथा नदियों के परिवार की संख्या परस्पर में समान है ॥२६॥ आगे भरत आदि क्षेत्रों में रहनेवाले मनुष्यों की स्थिति वगैरह का वर्णन करते हैं भरतैरावतयोवृद्धिहासौ, षट्समयाभ्यामुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभ्याम् ||२७|| अर्थ- भरत और ऐरावत क्षेत्र में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के छह समयों के द्वारा मनुष्यों की आयु, शरीर की ऊँचाई, भोगोपभोग

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