Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Kailashchandra Shastri
Publisher: Prakashchandra evam Sulochana Jain USA

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Page 63
________________ DEVIPULIBOO1.PM65 (63) (तत्वार्थ सूत्र अध्याय) प्रकार की हानि या वृद्धि सदा होती रहती है। उसके निमित्त से द्रव्यों में स्वभाव से ही सदा उत्पाद-व्यय हुआ करता है। यह स्व-निमित्तक उत्पाद व्यय है। तथा धर्मादि द्रव्य प्रति समय अश्व आदि अनेक जीवों और पुदगलों के गमन में, ठहरने में और अवकाशदान में निमित्त होते हैं, प्रति क्षण गति वगैरह में परिवर्तन होता रहता है अतः उनके निमित्त से धर्मादि द्रव्यों में भी परिवर्तन होना स्वाभाविक है। यह परनिमित्तक उत्पादव्यय है। शंका - यदि धर्मादि द्रव्य स्वयं नहीं चलते तो वे दूसरों को चलाते कैसे हैं ? देखा जाता है कि जल वगैरह जब स्वयं बहते है तभी मछलियों वगैरह को चलने में सहायक होते हैं। समाधान - यह आपति उचित नहीं है । जैसे चक्षु रूप के देखने में सहायक है किन्तु यदि मनुष्य का मन दूसरी ओर लगा हो तो चक्षु रूप को देखने का आग्रह नहीं करती । इसी तरह धर्मादि द्रव्य भी चलने मे उदासीन निमित्त हैं, प्रेरक नहीं हैं, ॥७॥ 'अजीवकायाः' सूत्र मे 'काय' पद देने से यह तो ज्ञात हो गया कि उक्त द्रव्य बहु द्रव्य बहु प्रदेशी है। किन्तु किसके कितने प्रदेश हैं यह ज्ञात नहीं हुआ । उसके बतलाने के लिए सूत्र कहते हैं असंख्येया: प्रदेशा धर्माधमैकजीवानाम् ||८| अर्थ-धर्मद्रव्य अधर्म द्रव्य और एक जीव द्रव्य इनमें से प्रत्येक के असंख्यात-असंख्यात प्रदेश होते हैं। विशेषार्थ- जितने आकाश को पुदगल का एक परमाणु रोकता है उतने क्षेत्र को प्रदेश कहते हैं। धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य तो निष्क्रिय हैं और समस्त लोकाकाश में व्याप्त हैं । अतः लोकाकाश के असंख्यात प्रदेशों में व्याप्त होने से वे दोनों असंख्यात, असंख्यात प्रदेशी हैं। जीव भी उतने ही प्रदेशी हैं किन्तु उसका स्वभाव सकुचने और फैलने का है। अतः नाम तत्त्वार्थ सूत्र *************** अध्याय - कर्म के द्वारा उसे जैसा छोटा या बड़ा शरीर मिलता है उतने में ही फैलकर रह जाता है । किन्तु जब केवलज्ञानी होकर वह लोकपूरण समुद्घात करता है तब वह भी धर्म-अधर्म द्रव्य की तरह समस्त लोकाकाश मे व्याप्त हो जाता है। अतः वह भी असंख्यात प्रदेशी ही है ॥८॥ आगे आकाश के प्रदेश बतलाते हैं आकाशस्यानन्ता: ||९|| अर्थ- आकाश द्रव्य के अनन्त प्रदेश हैं । अर्थात यद्यपि आकाश एक अखण्ड द्रव्य है किन्तु यदि उसे परमाणु के द्वारा मापा जाये तो वह अनन्त परमाणुओं के फैलाव के बराबर होता है। इससे उसे अनन्त प्रदेशी कहा है ॥९॥ पुदगलों के भी प्रदेश बतलाते हैं संख्येयासंख्येयाश्च पुद्गलानाम् ||१०|| अर्थ- यहाँ 'च' शब्द से अनन्त लेना चाहिए । अतः किसी पुद्गल द्रव्य के संख्यात प्रदेश हैं, किसी के असंख्यात हैं और किसी के अनन्त हैं। आशय है कि शुद्ध पुद्गल द्रव्य तो एक अविभागी परमाणु है। किन्तु परमाणुओं में बंधने और बिछड़ने की शक्ति है। अतः परमाणु के मेल से स्कंध बनता है, सो कोई स्कंध तो दो परमाणुओं के मेल से बनता है, कोई तीन के, कोई चार के, कोई संख्यात के कोई असंख्यात के और कोई अनन्त परमाणुओं के मेल से बनता है अतः कोई संख्यात प्रदेशी होता है, कोई असंख्यात प्रदेशी होता है और कोई अनन्त प्रदेशी होता है। शंका - लोक तो असंख्यात प्रदेशी है उस में अनन्त प्रदेशी पुद्गल द्रव्य कैसे रहता है? समाधान - एक ओर तो पुद्गलों में सूक्ष्मरूप परिणमन करने की शक्ति है, दूसरी ओर आकाश मे अवगाहन शक्ति है । अतः सूक्ष्म रूप * *** 4101) *

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