Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Kailashchandra Shastri
Publisher: Prakashchandra evam Sulochana Jain USA
View full book text
________________
D:\VIPUL\B001.PM65 (69)
(तत्त्वार्थ सूत्र ++******++++++++अध्याय
उष्ण, कोमल-कठोर, और हल्का- भारी । रस पाँच प्रकार का होता हैखट्टा, मीठा, कडुआ, कसैला, और चिरपरा । गन्ध दो प्रकारकी हैसुगन्ध और दुर्गन्ध । वर्ण पाँच प्रकार का है- काला, नीला, लाल, पीला और सफेद । इस तरह बीस भेद हैं। इन भेदों के भी अवान्तर भेद बहुत हैं। ये सब गुण पुद्गलों में पाये जाते हैं ॥ २३ ॥
आगे
पुद्गल द्रव्य की पर्याय बतलाते हैं
शब्द- बन्ध-सौक्ष्म्य- स्थौल्य-संस्थान -भेदतमश्छाया-तपोद्योतवन्तश्च ||२४||
अर्थ - शब्द, बन्ध, सूक्ष्मपना, स्थूलपना, संस्थान, भेद, तम, छाया, आतप और उद्योत से सब पुद्गल की ही पर्याय हैं।
विशेषार्थ - शब्द दो प्रकार का है- भाषा रूप और अभाषा रूप । भाषा रूप शब्द भी दो प्रकार का है अक्षर रूप और अनक्षर रूप । मनुष्यों के व्यवहार में आने वाली अनेक बोलियां अक्षर रूप भाषात्मक शब्द हैं। पशु-पक्षियों वगैरह की टें टें, में में अनक्षर रूप भाषात्मक शब्द हैं । अ-भाषा रूप शब्द दो प्रकार का है- एक जो पुरुष के प्रयत्न से पैदा होता है उसे प्रायोगिक कहते हैं। जो बिना पुरुषके प्रयत्न के मेघ आदि की गर्जना से होता है उसे स्वाभाविक कहते हैं । प्रायोगिक के भी चार भेद हैं- चमड़े को मढ़कर ढोल नगारे वगैरह का जो शब्द होता है। वह तत है । सितार वगैरह के शब्द को 'वितत' कहते हैं। घण्टा वगैरह के शब्दको घन कहते हैं। बांसुरी शंख वगैरह के शब्द को 'सुषिर' कहते हैं। ये सब शब्द के भेद हैं। बन्ध भी दो प्रकार का है- वैस्रसिक और प्रायोगिक । जो बन्ध बिना पुरुष के प्रयत्न के स्वयं होता है उसे वैस्त्रसिक कहते हैं। जैसे पुद्गलों के स्निग्ध और रूक्ष गुणके निमित्त से स्वयं ही बादल, बिजलीं और इन्द्रधनुष वगैरह बन जाते हैं। पुरुष के प्रयत्न से होने वाला बन्ध प्रायोगिक है। उसके भी दो भेद हैं- एक अजीव- अजीव का *****++++113 ++++++++++
तत्त्वार्थ सूत्र +++++++++++अध्याय
बन्ध; जैसे लकड़ी और लाख का बन्ध । दूसरा जीव और अजीव का बन्ध, जैसे आत्मा से कर्म और नोकर्मका बन्ध । सूक्ष्मपना दो प्रकार का है- एक सबसे सूक्ष्म, • जैसे परमाणु। दूसरा आपेक्षिक सूक्ष्म, जैसे बेल से सूक्ष्म आंवला और आंवले से सूक्ष्म बेर । स्थूलपना भी दो प्रकार का है - एक सबसे अधिक स्थूल-जैसे बैर से स्थूल आंवला और आंवला से स्थूल बेल । जैसे समस्त जगत में व्यापत महास्कन्ध तरह का है- गोल, चौकोर, लम्बा; चौड़ा आदि आकारों को 'इत्थ लक्षण' कहते हैं क्योंकि उन्हें कहा जा सकता है । जिस आकार को कह सकना शक्य न हो, जैसे बादलों में अनेक प्रकार के आकार बनते बिगड़ते रहते हैं, उन्हें 'अनित्य लक्षण' कहते हैं। भेद छह प्रकार का है- आरा से लकड़ी को चीरने पर जो बुरादा निकलता है उसका नाम उत्कर है। जो गेहूं के आटे को चूर्ण कहते हैं। घड़े के ठीकरों को खण्ड कहते हैं। उड़द- मूंग वगैरह की दाल के छिलकों को चूर्णिका कहते हैं। मेघ वगैरह के पटलका नाम प्रतर है। लोहे को गर्म करके पीटने पर जो फुलिंगे निकलते हैं उन्हें अणु-चटन कहते हैं। ये सब भेद यानी टुकड़ों के प्रकार हैं। तम अन्धकार का नाम है। छाया दो प्रकार की होती है- एक तो जिस वस्तु की छाया हो उसका रूप रंग ज्यों का त्यों उसमें आ जाये, जैसे दर्पण में मुख का रूप रंग वगैरह
का त्यों आ जाता है। दूसरे प्रतिबिम्ब मात्र, जैसे धूप में खड़े होने से छाया मात्र पड़ जाती है। सूर्य के प्रकाश को आतप या घाम कहते हैं। चन्द्रमा वगैरह के शीतल प्रकाश को उद्योत कहते हैं। ये सब पुद्गल की ही पर्याएँ हैं ॥२४॥
आगे पुद्गल के भेद कहते हैं
अणवः स्कन्धा
||२५||
अर्थ - पुद्गल के दो भेद हैं- अणु और स्कन्ध । जिसका दूसरा भाग नहीं हो सकता, उस अविभागी एकप्रदेशी पुद्गल द्रव्य को अणु या
*********114++++++