Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Kailashchandra Shastri
Publisher: Prakashchandra evam Sulochana Jain USA

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Page 100
________________ D:IVIPUL\BOO1.PM65 (100) (तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय .D ही श्वास वगैरह लेते हैं। उन्हें साधारण वनस्पति कहते हैं। जिसके उदय से द्वीन्द्रिय आदि में जन्म हो वह त्रसनाम है । जिसके उदय से एकेन्द्रियों में जन्म हो वह स्थावर नाम है। जिसके उदय से दूसरे जीव अपने से प्रीति करें वह सुभगनाम है। जिसके उदय से सुन्दर सुरूप होने पर भी दूसरे अपने से प्रीति न करें अथवा घृणा करें वह दुर्भगनाम है। जिसके उदय से स्वर मनोज्ञ हो जो दूसरों को प्रिय लगे वह सुस्वर नाम है। जिसके उदय से अप्रिय स्वर हो वह दुस्वर नाम है। जिसके उदय से शरीर के अवयव सुन्दर हों वह शुभ नाम है। जिसके उदय से शरीर के अवयव सुन्दर न हों वह अशुभ नाम है। जिसके उदय से सूक्ष्म शरीर हो जो किसी से न रुके वह सूक्ष्म नाम है। जिसके उदय से स्थूल शरीर हो वह बादर नाम है। जिसके उदय से आहार आदि पर्याप्तिकी पूर्णता हो वह पर्याप्ति नाम है। उसके छह भेद हैं- आहार पर्याप्ति नाम, शरीर पर्याप्ति नाम, इन्द्रिय पर्याप्ति नाम, प्राणापान पर्याप्ति नाम, भाषा पर्याप्तिनाम और मनः पर्याप्ति नाम। जिसके उदय से पर्याप्तियों की पूर्णता नहीं होती वह अपर्याप्ति नाम है। जिसके उदय से शरीर के धातु उपधात स्थिर होते हैं जिससे कठिन श्रम करने पर भी शरीर शिथिल नहीं होता वह स्थिर नाम है। जिसके उदय से धातु उपधातु स्थिर होते हैं जिससे कठिन श्रम करने पर भी शरीर शिथिल नहीं होता वह स्थिर नाम है। जिसके उदय से धातु उपधातु स्थिर नहीं होते, जिससे थोड़ा-सा श्रम करने से ही या जरा सी गर्मी-सर्दी लगने से ही शरीर म्लान हो जाता है वह अस्थिर नाम है। जिसके उदय से शरीर प्रभा सहित हो वह आदेय नाम है और जिसके उदय से शरीर प्रभा रहित हो वह अनादेय नाम है। जिसके उदय से संसार में जीव का यश फैले वह यश:कीर्ति नाम है। जिसके उदय से संसार में अपयश फैले वह अयशस्कीर्ति नाम है। जिसके उदयसे अपूर्व प्रभावशाली अर्हन्त पदके साथ धर्मती का प्रवर्तन होता है वह तीर्थकर नाम है। इस तरह नामकर्म की बयालीस प्रकृतियों के ही तिरानवें भेद हो जाते हैं ॥१॥ (तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय - अब गोत्र कर्म की प्रकृतियाँ कहते हैं उच्चैनीचैश्च ।।१।। अर्थ- गोत्रकर्म के दो भेद हैं- उच्च गोत्र और नीच गोत्र । जिसके उदय से लोक में अपने सदाचार के कारण पूज्य कुल में जन्म होता है उसे उच्च गोत्र कहते हैं और जिसके उदय से निन्दनीय आचरण वाले कुल में जन्म हो वह नीच गोत्र है ॥१२॥ अब अन्तराय कर्म के भेद कहते हैं दान-लाभ-भोगोपभोग-वीर्याणाम् ||१३|| अर्थ-दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगन्तराय और वीर्यान्तराय ये पाँच भेद अन्तराय कर्म के हैं। जिसके उदय से देने की इच्छा होते हुए भी नहीं देता है वह दानान्तराय है। लाभ की इच्छा होते हुए भी तथा प्रयत्ल करने पर भी जिसके उदय से लाभ नहीं होता है वह लाभान्तराय है । भोग और उपभोग की चाह होते हुए भी जिसके उदय से भोग उपभोग नहीं कर सकता वह भोगान्तराय और उपभोगान्तराय है । उत्साह करने पर भी जिसके उदय से उत्साह नहीं हो पाता वह वीर्यान्तराय है ॥१३॥ प्रकृति बन्ध के भेद बतलाकर अब स्थिति बन्ध के भेद बतलाते हैं। स्थिति दो प्रकार की है - उत्कृष्ट और जधन्य । पहले कर्मो की उत्कृष्ट स्थिति कहते हैं आदितस्तिसृणामन्तरायस्य च त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोटयः परा स्थितिः ||१४|| अर्थ-आदि के तीन अर्थात् ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय कर्मों की उत्कष्ट स्थिति तीस कोटाकोटी सागर प्रमाण है। यह उत्कृष्ट स्थिति बन्ध संज्ञी पंचेद्रिय पर्याप्तक मिथ्याइष्टि जीव के होता है ॥१४॥ ###########_1750* * * ***

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