Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Kailashchandra Shastri
Publisher: Prakashchandra evam Sulochana Jain USA

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Page 94
________________ D:\VIPUL\B001.PM65 (94) तत्त्वार्थ सूत्र ********* अध्याय अष्टम अध्याय आस्रव तत्त्व का व्याख्यान हो चुका। अब बन्ध का व्याख्यान करना है अतः पहले बन्ध के कारणों को बतलाते हैं मिथ्यादर्शनाविरति -प्रमाद-कषाय-योगा बन्धहेतवः ||१|| अर्थ - मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये पाँच बन्ध के कारण हैं। विशेषार्थ - पहले कह आये हैं कि तत्त्वार्थ के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं। उससे उल्टा यानी अतत्त्वों के श्रद्धान को या तत्त्वों के अश्रद्धान को मिथ्यादर्शन कहते हैं। उसके दो भेद हैं- मिथ्यात्व कर्म के उदय से दूसरे के उपदेशों के बिना ही जो मिथ्या श्रद्धान होता है वह नैसर्गिक मिथ्यात्व है । इसको अगृहीत मिथ्यात्व भी कहते हैं, यह मिथ्यात्व एकेन्द्रिय आदि जीवों के पाया जाता है। जो मिथ्यात्व दूसरों के उपदेश से होता है वह परोपदेश पूर्वक या गृहीत मिथ्यात्व कहलाता है। इसके पाँच भेद हैं- एकान्त, विपरीत, संशय, वैनयिक और अज्ञान । अनेक धर्मरूप वस्तु को एक धर्मरूप ही मानना एकान्त मिथ्यात्व है। जैसे, वस्तु सत् ही है, या असत् ही है, या नित्य ही है अथवा अनित्य ही है ऐसा मानना एकान्त मिथ्यात्व है । हिंसा में धर्म मानना, परिग्रह के होते हुए भी अपने को निष्परिग्रही कहना विपरीत मिथ्यात्व है । सम्यग्दर्शन, समयग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र मोक्ष के मार्ग हैं या नहीं इस द्विविधा को संशय मिथ्यात्व कहते हैं । सब देवताओं को, सब धर्मों को और सब साधुओं को समान मानना वैनयिक मिथ्यात्व है। हित और अहित का विचार न कर सकना अज्ञान मिथ्यात्व है। छह काय के जीवों की हिंसा का त्याग न करना और पाँच इन्द्रियों का तथा मन को विषयों में जाने से नहीं रोकना, सो बारह ***+++++++163++++++++++ तत्त्वार्थ सूत्र + + +अध्याय प्रकार की अविरति है। शुभ कार्यों में आलस्य करने को प्रमाद कहते हैं । उसके पन्द्रह भेद हैं- स्त्री कथा, भोजन कथा, देश कथा और राज कथा ये चार कुकथाएँ, क्रोध, मान, माया और लोभ मे चार कषायें, पाँच इन्द्रियाँ, निद्रा, और स्नेह सोलह कषाय और नव नोकषाय ये पच्चीस कषायें हैं। चार मनोयोग, चार वचन योग और सात काय योग ये पन्द्रह योग हैं। ये सब मिलकर भी तथा अलग-अलग भी बन्ध के कारण होते हैं । सो पहले मिथ्यात्व गुणस्थान में तो पाँचो हो बंध के कारण होते हैं । सासादन, मिश्र और अविरत सम्यग्द्दष्टि नाम के दूसरे तीसरे और चौथे गुणस्थान में मिथ्यात्व को छोड कर शेष चार बन्ध के कारण हैं। संयतासंयत नाम के पाँचवे गुणस्थान में अविरति और विरति तो मिली हुई है, क्योकि उसमें त्रस हिंसा का त्याग तथा यथाशक्ति इन्द्रिय निरोध होता है किन्तु शेष तीन कारण पूरे हैं। प्रमत्त संयत नाम के छठे गुणस्थान में प्रमाद, कषाय और योग तीन कारण रहते हैं। अप्रमत्त नाम के सातवें गुणस्थान से लेकर दसवें तक कषाय और योग दो ही कारण रहते हैं । उपशांत कषाय, क्षीण कषाय और सयोगकेवली नाम के ग्यारहवें, बारहवें, और तेरहवें गुणस्थानों में केवल एक योग ही होता है। चौदहवे अयोग केवली गुणस्थान मे बंध का एक भी कारण नहीं हैं ॥१॥ अब बन्ध का स्वरूप कहते हैं सकषयात्वाज्जीव: कर्मणो योग्यान् पुदगलानादत्ते सबन्धः ||२|| अर्थ - कषाय सहित होने से जीव जो कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है उसे बन्ध कहते हैं। विशेषार्थ समस्त लोक पुद्गलो से ठसाठस भरा हुआ है । वे पुद्गल अनेक प्रकार के हैं। उनमें अनन्तानन्त पुदगल परमाणु कर्म रूप होने के योग्य हैं। जब कषाय से संतप्त संसारी जीव योग के द्वारा हलन +++++++++++164+++++++++++

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