Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Kailashchandra Shastri
Publisher: Prakashchandra evam Sulochana Jain USA
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तत्त्वार्थ सूत्र *************** अध्याय - आकाश का क्या दोष है? जैसे यदि रेलगाड़ी भरी हो और उसमें बैठे हुए यात्री अन्य यात्रियों को न चढ़ने दें तो इसमें रेलगाड़ी का क्या दोष है वह तो बराबर स्थान दिये हुए है।
शंका - अलोकाकाश में कोई दूसरा द्रव्य नहीं रहता अतः वहाँ के आकाश में अवकाश दान देने का स्वभाव नहीं है?
समाधान- यदि वहाँ कोई द्रव्य नहीं रहता तो इससे आकाश अपने स्वभाव को नहीं छोड़ देता । जैसे किसी खाली मकान में यदि कोई नहीं रहता तो इसका यह मतलब नहीं है कि उस मकान में किसी को स्थान देने की शक्ति ही नहीं है। कोई भी द्रव्य अपने स्वभाव को छोड़कर नहीं रह सकता ॥१८॥
आगे पुद्गल व्रव्य का उपकार बतलाते हैंशरीर-वाधङ्-मन:प्राणापाना: पुद्गलानाम् ।।१९।।
अर्थ- शरीर, वचन, मन और श्वास उछ्वास ये सब पुद्गलों का उपकार है।
विशेषार्थ- हमारा शरीर तो पुद्गलों का बना है यह बात प्रत्यक्ष ही है । कार्मण शरीर यानी जो कर्मपिण्ड आत्मा से बंधा हुआ है वह भी पौद्गलिक ही है; क्योंकि मूर्तिक पदार्थों के निमित्त से ही कर्म अपना फल देते हैं। जैसे पैर में कांटा चुभने से असाता कर्म का उदय होता है और मीठे रुचिकर पदार्थ को खाने मिलने से साता कर्म का उदय होता है। अतः मूर्तिक के निमित्त से फलोदय होने के कारण कार्मण शरीर मूर्तिक ही है। वचन दो प्रकार का है- भाव वचन और द्रव्य वचन । वीर्यान्तराय कर्म और मति-श्रुत ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से तथा अंगोपांग नाम कर्म के उदय से आत्मा में जो बोलने की शक्ति होती है उसे भाव वचन कहते हैं। पुद्गल के निमित्त से होने के कारण यह भी पौद्गलिक है। तथा बोलने की शक्ति से युक्त जीव के कण्ठ, तालु वगैरह के संयोग
तत्त्वार्थ सूत्र ***************अध्याय - से जो पुद्गल शब्द रूप बनते हैं वह द्रव्य वचन है। वह भी पौद्गलिक ही हैं; क्योंकि कानों से सुनाई देता है। दूसरे मत वाले शब्द को अमूर्तिक मानते हैं किन्तु यह ठीक नहीं है; क्योंकि शब्द मूर्तिमान् श्रोत्रेन्द्रिय से जाना जाता है, मूर्तिमान् वायु के द्वारा एक दिशा से दूसरी दिशा में ले जाया जाता है, शब्द की टक्कर से प्रतिध्वनि होती है, शब्द मूर्तिक के द्वारा रुक जाता है । अतः शब्द मूर्तिक ही है। मन भी दो प्रकार का है- भाव मन और द्रव्य मन । गुण दोष के विचार की शक्तिको भाव मन कहते हैं, वह शक्ति पदगलकों के क्षयोपशम से प्राप्त होती है अतः वहः भी पौद्गलिक है । तथा ज्ञानावरण और वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से
और अंगोपांग नाम कर्मके उदय से हृदयस्थान में जो पुद्गल मन रूप से परिणमन करते हैं, उन्हें द्रव्यमन कहते हैं। यह द्रव्य मन तो पदगलों से ही बनता है इसलिए यह भी पौद्गलिक है । अन्दर की वायु को बाहर निकालना उच्छ्वास या प्राण है। और बाहरकी वाय को अन्दर ले जाना निश्वास या अपान है। ये दोनों भी पौद्गलिक हैं क्योंकि हथेली के द्वारा नाक और मुँह को बन्द कर लेने से श्वास रुक जाता है। तथा ये आत्मा के उपकारी हैं; क्योंकि श्वास-निश्वास के बिना सशरीरी आत्मा जीवित नहीं रह सकता । इन्हीं से आत्मा का अस्तित्व मालूम होता है; क्योंकि जैसे किसी मशीन को कार्य करती हुई देखकर यह मालूम होता है कि इसका कोई संचालक है उसी तरह श्वास-निश्वास की क्रिया से आत्मा का अस्तित्व प्रतीत होता है ॥१९॥ पुद्गल तव्यका और भी उपकार बतलाते हैं
सुख-दु:ख-जीवित-मरणोपग्रहाश्व।।१०|| अर्थ- सुख-दुःख, जीवन, मरण भी पुद्गल कृत उपकार हैं। विशेषार्थ -साता वेदनीय के उदय से और बाह्य द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के निमित्त से आत्मा को जो प्रसन्नता होती है बहु सुख है। और
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