Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Kailashchandra Shastri
Publisher: Prakashchandra evam Sulochana Jain USA

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Page 90
________________ DRIVIPULIBOO1.PM65 (90) तत्त्वार्थ सूत्र *************अध्याय -D कर, कुँए या नदी मे डूबकर या फाँसी लगा कर अपना घात करते हैं तब आत्मघात होता है। किन्तु सल्लेखना में यह बात नहीं है । जैसे, कोई व्यापारी नहीं चाहता कि जिस घर में बैठ कर वह सुबह से शाम तक धन संचय करता है वह नष्ट हो जाये । यदि उसके घर मे आग लग जाती है तो भरसक उसको बझाने की चेष्टा करता है। किन्तु जब देखता है कि घर को बचाना असम्भव है तो फिर घर की परवाह न करके धन को बचाने की कोशिश करता है । इसी तरह गृहस्थ भी जिस शरीर के द्वारा धर्म को साधता है उसका नाश नहीं चाहता । यदि उसके नाश के कारण रोग आदि उसे सताते हैं, अपने धर्म के अनुकूल साधनों से उन रोग आदि को दूर करने की भरसक चेष्टा करता है। किन्तु जब कोई उपाय कारगर होता नही दिखायी देता और मृत्यु के स्पष्ट लक्षण दिखायी देते हैं तब वह शरीर की परवाह न करके अपने धर्म की रक्षा करता है । ऐसी स्थिति में सल्लेखना को आत्मवध कैसे कहा जा सकता है ? ॥२२॥ इसके आगे व्रत दूषक कार्यों का विवेचन करने के लिए सब से पहिले सम्यक्त्व के पाँच अतिचार कहते हैं शंका- कांक्षा-विचिकित्साऽन्यद्दष्टिप्रशंसासंस्तवा: सम्यग्द्दष्टे रविचाराः ॥१३।। अर्थ- शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यद्दष्टि- प्रशंसा, अन्य दृष्टि - संस्तव, ये सम्यग्दर्शन के पाँच अतिचार हैं। विशेषार्थ - अरहन्त भगवान के द्वारा कहे गये तत्वों में यह शङ्गा होना कि ये ठीक हैं या नहीं, शङ्का है। अथवा अपनी आत्मा को अखण्ड अविनाशी जान कर भी मृत्यु वगैरह से डरना सो शङ्का है । इस लोक या परलोक में भोगों की चाह को कांक्षा कहते हैं । दुःखी, दरिद्री, रोगी, आदि को देखकर उससे धृणा करना विचिकित्सा है । मिथ्या दृष्टि के ज्ञान, तप वगैरह की मन मे सराहना करना अन्यदृष्टि प्रशंसा है और वचन (तत्त्वार्थ सूत्र ************** अध्याय - से तारीफ करना संस्तव है। ये पाँच सम्यग्दर्शन के अतिचार यानी दोष हैं। इसी तरह व्रत और शीलों के अतिचारों की विधि कहते हैं - व्रत-शीलेषु पंच पंच यथाक्रम् ||२४|| अर्थ- अहिंसादिक अणुव्रतों में और दिग्विरति आदि शीलों मे क्रम से पाँच-पाँच अतिचार कहते हैं। शंका - व्रत और शील में क्या अन्तर है? समाधान - जो व्रतों की रक्षा के लिए होते हैं उन्हे शील कहते हैं ॥२४॥ प्रारम्भ मे अहिंसा अणुव्रत के अतिचार कहते हैंबन्ध-वध-च्छेदातिभारारोपणानपाननिरोधाः ||२७|| अर्थ- बन्ध, वध, च्छेद, अतिभार-आरोपण और अन्नपान-निरोध ये पाँच अहिंसा अणुव्रत के अतिचार हैं। विशेषार्थ - प्राणी को रस्सी सांकल वगैरह से बांधना या पिंजरे मे बन्द कर देना, जिससे वह अपनी इच्छानुसार न जा सके सो बंध है। लाठी, डण्डे और कोडे वगैरह से पीटना वध है। पूंछ कान आदि अवयवों को काट डालना छेद है। मनुष्य या पशुओं पर उनकी शक्ति से अधिक भार लादना अथवा शक्ति से बाहर काम लेना अति-भारारोपण है। उन्हें समय पर खाना पीना न देना अन्न-पान-निरोध है। ये अहिंसा अणुव्रत के पाँच अतिचार हैं ॥२५॥ अब सत्य अणुवत के अतिचार कहते हैंमिथ्योपदेश- रहोभ्याख्यान- कूटलेखक्रिया_ न्यासापहार- साकारमंत्रभेदाः ||२६|| अर्थ - मिथ्योपदेश, रहोभ्याख्यान, कूटलेख-क्रिया, न्यासा पहार और साकार-मन्त्र भेद ये पाँच सत्याणुव्रत के अतिचार हैं।

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