Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Kailashchandra Shastri
Publisher: Prakashchandra evam Sulochana Jain USA

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Page 76
________________ D:\VIPUL\BO01. PM65 (76) तत्त्वार्थ सूत्र ++++++++++++अध्याय षष्ठम अध्याय अजीव तत्व का व्याख्यान करके अब आसव तत्व का कथन करते हैं काय-वाङ् मन:कर्मयोगः ||9|| अर्थ काय, वचन और मन की क्रिया को योग कहते हैं। विशेषार्थ - वास्तव में तो आत्मा के प्रदेशों में जो हलन चलन होती है उसका नाम योग है। वह योग या तो शरीर के निमित्त से होता है या वचन के निमित्त से होता है अथवा मन के निमित्त से होता है। इसलिए निमित्त के भेद से योग के तीन भेद हो जाते हैं- काययोग, वचनयोग और मनोयोग । प्रत्येक योग के होने में दो कारण होते हैं- एक अन्तरंग कारण, दूसरा बाह्य कारण अल्प ज्ञानियों में अन्तरंग कारण कर्मों का क्षयोपशम है और केवल ज्ञानियों में अन्तरंग कारण कर्मों का क्षय है तथा बाह्य कारण वे नो कर्म वर्गणाएँ हैं जिनमें शरीर, वचन और मनकी रचना होती है तथा जिन्हें जीव हर समय ग्रहण करता रहता है। अतः वीर्यान्तराय कर्मका क्षयोपशम होने पर सात प्रकारकी काय वर्गणाओं में से किसी एक वर्गणा की सहायता से जो आत्म प्रदेशों में हलन चलन होता है उसे काययोग कहते हैं। वीर्यान्तराय और मत्यक्षरावरण आदि कर्मों का क्षयोपशम होने से जब जीव में वाग्लब्धि प्रकट होती है और वह बोलने के लिए तत्पर होता है तब वचन वर्गणा के निमित्त से जो आत्म प्रदेशों में हलन चलन होता है उसे वचन योग कहते हैं। वीर्यान्तराय और नो इन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम रूप मनोलब्धि के होने पर तथा मनोवर्गणा का आलम्बन पाकर चिन्तन के लिए तत्पर हुए आत्मा के प्रदेशों में जो हलन चलन होता है उसे मनोयोग कहते हैं । उक्त कर्मों का क्षय होने पर तीनों वर्गणाओं की अपेक्षा से सयोग केवली के आत्म प्रदेशों में जो हलन चलन होता है वह कर्म क्षय निमित्तक योग है। इस +++++++++127+++++++++ तत्त्वार्थ सूत्र +++++++++++++++अध्याय तरह योग तेरहवें गुणस्थान तक ही रहता है। इसी से चौदहवें गुणस्थान का नाम अयोग- केवली है। अयोग केवली के तीनों प्रकार की वर्गणाओं का आना रुक जाता है इससे वहाँ योग का अभाव हो जाता है ॥ १ ॥ यह योग ही आसव है स आस्रवः ||२|| अर्थ - यह योग ही आस्रव है। अर्थात् सरोवर में जिस द्वार से पानी आता है वह द्वार पानी के आने में कारण होने से आस्रव कहा जाता है । वैसे ही योग के निमित्त से आत्मा के कर्मों का आगमन होता है इसलिए योग ही आस्रव है। आस्रव का अर्थ आगमन है । योग के द्वारा जो कर्म आता है वह कर्म दो प्रकार का है- पुण्य कर्म और पाप कर्म । अतः वह यह बताते हैं कि किस योग से किस कर्म का आस्रव होता है। शुभः पुण्यस्याशुभ: पापस्य ||३|| अर्थ- शुभ योग से पुण्य कर्म का आस्रव होता है और अशुभ योग से पाप कर्म का आस्रव होता है। विशेषार्थ किसी के प्राणों का घात करना, चोरी करना, मैथुन सेवन करना आदि अशुभ काय योग है। झूठ बोलना, कठोर असभ्य वचन बोलना आदि अशुभ वचन योग है। किसी के मारने का विचार करना, किसीसे ईर्ष्या रखना आदि अशुभ मनोयोग है। इनसे पाप कर्म का आस्रव होता है । तथा प्राणियों की रक्षा करना, हित-मित वचन बोलना, दूसरों का भला सोचना आदि शुभ योग हैं। इनसे पुण्य कर्म का आस्रव होता है। शंका- योग शुभ अशुभ कैसे होता है ? समाधान - शुभ परिणाम से होने वाला योग शुभ है और अशुभ परिणाम से होने वाला योग अशुभ है। ******++++ 128+++++++

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