Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Kailashchandra Shastri
Publisher: Prakashchandra evam Sulochana Jain USA
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D:IVIPULIBO01.PM65 (74)
(तत्त्वार्थ सूत्र * ****** *****अध्याय -D वाले परमाणु को अपने रूप कर लेता है।
विशेषार्थ - जब दो परमाणु अपनी- अपनी पूर्व अवस्था को छोड़ कर एक तीसरी अवस्था को अपनाते हैं तभी स्कन्ध बनता है। यदि ऐसा न हो और जैसे वस्त्र मे काले और सफेद धागे आपस मे संयक्त होकर भी जुदे-जुदे ही रहते हैं वैसे ही यदि परमाणु भी रहें तो कभी भी स्कन्ध नहीं 'बन सकता । अतः बन्ध होने पर अधिक गुणवाला परमाणु अपने से कम गुणवाले परमाणु को अपने रूप कर लेता है। इससे दोनों मिलकर एक हो जाते हैं और उनके रूप रस आदि गुणों में भी परिवर्तन होकर स्कन्ध बन जाता है। इसी से बंधने वाले परमाणुओं में दो गुण का अन्तर रक्खा। इससे अधिक अन्तर होने से एक परमाणु दूसरे में लय तो हो सकता है किन्तु फिर तीसरी अवस्था पैदा नहीं हो सकती; क्योंकि अल्प गुणवाला अपने से अधिक गुणवाले पर कुछ भी प्रभाव नहीं डाल सकता । इसी तरह अन्तर न रखने से भी दोनों समान बलशाली होने से एक दूसरे को अपने रूप में परिणमा कर अलग-अलग ही रह जाते ॥३७॥ अब दूसरी तरह से द्रव्य का लक्षण कहते हैं -
गुणपर्ययवत् द्रव्यम् ||३८|| अर्थ-जिसमें गुण और पर्याय पायी जाती है उसे द्रव्य कहते हैं। विशेषार्थ - द्रव्य में अनेक परिणमन होने पर भी जो द्रव्य से भिन्न नहीं होता, सदा द्रव्य के साथ ही रहता है वह गुण है। इसी से गुण को अन्वयी कहा गया है और जो द्रव्य में आती जाती रहती है वह पर्याय है: इसी से पर्याय को व्यतिरेकी कहा है । गुण पर्याय रूप ही द्रव्य है । जैसे, ज्ञान आदि जीव के गुण हैं और रूप आदि पुदगल के गुण हैं । न ज्ञान जीव को छोडकर रह सकता है ओर न रूप आदि गुण पुदगल को छोडकर रह सकते हैं। हाँ, ज्ञानगुण में भी परिणमन होता है जैसे घटज्ञान, पटज्ञान । रूप आदि में भी परिणमन होता है। यह परिणमन ही पर्याय है।
तत्त्वार्थ सूत्र ***************अध्याय -
पहले द्रव्य का लक्षण सत् कहा था और सत् का लक्षण 'उत्पादव्यय और प्रौव्य से जो युक्त हो वही सत है' ऐसा कहा था । यहाँ गुण पर्यायवान् को द्रव्य कहा है। इन दोनों लक्षणों में कोई अन्तर नहीं है। एक के कहने से दूसरे का अन्तर्भाव हो जाता है क्योकि गण ध्रुव होते हैं और पर्याय उत्पाद -विनाशशील होती है। यदि द्रव्य में गण न हो तो वह ध्रौव्य युक्त नहीं हो सकता और यदि पर्याय न हो तो वह उत्पाद-व्यय युक्त नहीं हो सकता । अतः जब हम कहते हैं कि द्रव्य ध्रौव्ययुक्त है तो उसका मतलब होता है कि द्रव्य गुणवान है। और जब उसे उत्पाद विनाशवाला कहते हैं तो उसका मतलब होता है कि वह पर्यायवान है । अतः दोनों लक्षण प्रकारान्तर से एक ही बात को कहते हैं । यहाँ इतना और समझ लेना चाहिये कि द्रव्य, गुण और पर्याय की सत्ता जुदी जुदी नहीं हैं किन्तु सबका अस्तित्व अथवा सत्ता एक ही है जो द्रव्य के नाम से कही जाती है । इसी से सत् को द्रव्य कहते हैंअब काल द्रव्य को कहते हैं
कालव ||३९|| अर्थ-काल भी द्रव्य है। विशेषार्थ -ऊपर द्रव्य के दो लक्षण बतलाये हैं । वे दोनों लक्षण काल में पाये जाते हैं। इसका खुलासा इस प्रकार है- पहला लक्षण है कि जिसमें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य पाये जावें वह द्रव्य है । सो काल द्रव्यमें ध्रौव्य पाया जाता है क्योंकि काल का स्वभाव सदा स्थायी है । तथा उत्पाद और व्यय पर के निमित्त से भी होते हैं और स्वनिमित्तक भी होते हैं; क्योंकि काल द्रव्य प्रति समय अनन्त पदार्थों के परिणमन में करण है, अतः कार्य के भेद से कारण में भी प्रति समय भेद होना जरूरी है यह परनिमित्तक उत्पाद-व्यय है । तथा कालमें अगुरुलघु नाम के गुण भी पाये जाते हैं। उनकी वृद्धि हानि होने की अपेक्षा से उसमें स्वयं भी उत्पाद,
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