Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Kailashchandra Shastri
Publisher: Prakashchandra evam Sulochana Jain USA
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DEVIPULIBOO1.PM65 (53) (तत्वार्थ सूत्र
अध्याय .D चतुर्थ अध्याय - अब देवों का वर्णन करते हैं
देवाश्चतुर्णिकायाः ||१|| अर्थ-निकाय समूह को कहते हैं । देवों के चार निकाय यानी समूह हैं-भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क, और वैमानिक ॥१॥ देवो की लेश्या बतलाते हैं
आदितस्त्रिषु पीतान्तले श्या: ||२|| अर्थ- भवनवासी , व्यन्तर और ज्योतिष्क इन तीन निकायों में कृष्ण, नील, कापोत और पीत, ये चार लेश्याएँ होती हैं ॥२॥
इन निकायों के अवान्तर भेद बतलाते हैंदशाष्ट-पञ्च-दादशविकल्पा: कल्पोपन्नपर्यन्ताः ||३||
अर्थ- भवनवासी देवों के दस भेद हैं, व्यन्तरों के आठ भेद हैं, ज्योतिषी देवो के पाँच भेद हैं और वैमानिक देवों में से जो कल्पोपन्न अर्थात् सोलह स्वर्गो के वासी देव हैं, उनके बारह भेद हैं ॥३॥
देवो के विषयों में और भी कहते हैंइन्द्र-सामानिक-त्रायत्रिश-पारिषद्-आत्मरक्ष लोकपाला-नीक-प्रकीर्णकाभियोग्य
किल्विषिकाश्चैकश: ||४|| अर्थ - देवों की प्रत्येक निकाय में इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिंश, पारिषद्, आत्मरक्ष, लोकपाल, अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषिक ये दस-दस भेद होते हैं।
तत्त्वार्थ सूत्र ***************अध्याय - विशेषार्थ-अन्य देवों में न पायी जानेवाली अणिमा आदि ऋद्धियों के द्वारा जो परम ऐश्वर्य को भोगता है, देवों के उस स्वामी को इन्द्र कहते हैं । जिनकी आयु, शक्ति, परिवार, तथा भोगपभोग वगैरह इन्द्र के समान ही होते हैं, किन्तु जो आज्ञा और ऐश्वर्य से हीन होते हैं उन्हें सामानिक कहते हैं। ये पिता, गुरु या उपाध्याय के समान माने जाते हैं। मंत्री और पुरोहित के समान जो देव होते हैं, उन्हें त्रायस्त्रिंश कहते हैं। इनकी संख्या तैंतीस होती है इसीसे इन्हें 'त्रायस्त्रिंश' कहा जाता है । इन्द्र की सभा के सदस्य देवों को पारिषद् कहते हैं। इन्द्र की सभा मे जो देव शस्त्र लिए इन्द्र के पीछे खड़े होते हैं उन्हें आत्मरक्ष कहते हैं। यद्यपि इन्द्र को किसी शत्रु का भय नहीं है फिर भी यह ऐश्वर्य का द्योतक है। कोतवाल के तुल्य देवो को लोकपाल कहते हैं। पैदल, अश्व, वृषभ, रथ, हाथी, गन्धर्व, और नर्तकी इस सात प्रकार की सेना के देव अनीक कहे जाते हैं । पुरवासी या देशवासी जनता के समान देवों को प्रकीर्णक (प्रजाजन ) कहते हैं। हाथी, घोड़ा, सवारी वगैरह बन कर जो देव दास के समान सेवा करते हैं उन्हें आभियोग्य कहते हैं। चाण्डाल की तरह दर ही रहने वाले पापी देवों को किल्विषिक कहते हैं। ये दस भेद प्रत्येक निकाय में होते हैं ॥४॥
उक्त कथन मे थोड़ा अपवाद है, जो बतलाते हैंत्रायरिंचश-लोकपालवा व्यन्तरज्योतिष्का: ||७||
अर्थ-व्यन्तर और ज्योतिष्क देवों में त्रायस्त्रिंश और लोकपाल नहीं होते। शेष आठ भेद ही होते हैं ॥५॥ अब इन्द्र का नियम बतलाते हैं
पूर्वयोीन्द्रा: ||६|| अर्थ- पहले की दो निकायों में दो-दो इन्द्र होते हैं । अर्थात् दस प्रकार के भवनवासियों के बीस इन्द्र हैं और आठ प्रकार के व्यन्तरों के