Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Kailashchandra Shastri
Publisher: Prakashchandra evam Sulochana Jain USA

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Page 57
________________ D:IVIPULIBO01.PM65 (57) तत्त्वार्थ सूत्र *************** अध्याय - सौधर्म स्वर्ग मे गिने जाते हैं। उत्तर दिशा के श्रेणीबद्ध तथा पश्चिम-उत्तर और उत्तर-पूर्व दिशा के श्रेणीबद्धों के बीच के प्रकीर्णक ऐशान स्वर्ग में गिने जाते हैं । इकत्तीसवें पटल से ऊपर असंख्यात योजन का अन्तराल देकर सानत्कुमार और माहेन्द्र कल्प प्रारम्भ हो जाते हैं । उनके सात पटल हैं जो डेढ़ राजु की ऊँचाई में हैं । यहाँ भी तीन दिशाओं की गिनती सानत्कुमार स्वर्ग में और उत्तर दिशा की गिनती माहेन्द्र कल्प में की जाती है। इसी तरह ऊपर के छह कल्प युगलों मे भी समझ लेना चाहिये। ये युगल ऊपर ऊपर आधे आधे राजु की ऊँचाई मे हैं। इस तरह छह राजू की ऊँचाई में सोलह स्वर्ग हैं उनके ऊपर एक राजु की ऊँचाई में नौ ग्रैवेयक, नौ अनुदिश और पाँच अनुत्तर ऊ पर ऊपर हैं । इन सब के मिलाकर कुल वेसठ पटल हैं। सोलह स्वर्गों के बारह इन्द्र हैं- प्रारम्भ के और अन्त के चार स्वर्गों में 'तो प्रत्येक में एक एक इन्द्र है। और बीच के आठ स्वर्गों में दो-दो स्वर्गो का एक- एक इन्द्र है । इस तरह सब इन्द्र बारह हैं । इनमे सौधर्म, सानत्कुमार, ब्रह्म, शुक्र, आनत और आरण ये छह दक्षिणेन्द्र हैं और ऐशान, माहेन्द्र, लान्तव,शतार, प्राणत और अच्युत ये छह उत्तरेन्द्र हैं।।१९।। वैमानिक देवों में परस्पर में क्या विशेषता है यह बतलाते हैं स्थिति- प्रभाव-सुख-द्युतिलेश्याविशुद्धीन्द्रियावधि-विषयतोऽधिका: ||१०|| अर्थ-वैमानिक देव स्थिति , प्रभाव, सुख, द्युति, लेश्या की विशुद्धि, इन्द्रियों का विषय तथा अवधिज्ञान का विषय, इन बातों में ऊपर ऊपर अधिक हैं। विशेषार्थ- आयु कर्म के उदय से उसी भव मे रहना स्थिति है। दूसरों का बुरा भला करने की शक्ति को प्रभाव कहते हैं । साता वेदनीय कर्म के उदय से इन्द्रियों के विषयों का भोगना सख है। शरीर, वस्त्र और तत्त्वार्थ सूत्र ***************अध्याय - आभूषणों वगैरह की चमक को द्युति कहते हैं। लेश्या की निर्मलता को लेश्या-विशुद्धि कहते हैं। प्रत्येक कल्प और प्रत्येक कल्प के प्रत्येक पटल के वैमानिक देव इन बातों में अपने नीचे के देवों से अधिक है। तथा अकी इन्द्रयों का और अवधि ज्ञान का विषय भी ऊपर अधिक अधिक है।।२०॥ गति-शरीर-परिग्रहाभिमानतो हीनाः ||२१|| अर्थ- तथा वैमानिक देव गति, शरीर की ऊँचाई ,परिग्रह और अभिमान में ऊपर ऊपर हीन हैं। विशेषार्थ-जो जीव को एक स्थान से दूसरे स्थान मे ले जाती है उसे गति यानी गमन कहते हैं। लोभ कषाय के उदय से विषयों में जो ममत्व होता है उसका नाम परिग्रह है । मान कषाय से उत्पन्न होने वाले अहंकार का नाम अभिमान है । यद्यपि ऊपर-ऊपर के देवों में गमन करने की शक्ति अधिक अधिक है परन्तु देशान्तर में जाकर क्रीडा वगैरह करने की उत्कट लालसा नहीं है, इसलिए ऊपर ऊपर के देवों में देशान्तर गमन कम पाया जाता है। शरीर की ऊँचाई भी ऊपर ऊपर घटती गयी है। सौधर्म, ऐशान के देवों का शरीर सात हाथ ऊँचा है। सानत्कुमार माहेन्द्र में छ हाथ ऊँचा है। ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ठ में पाँच हाथ ऊँचा है। शुक्र , महाशुक्र , शतार, सहस्त्रार में चार हाथ ऊँचा है। आनत प्राणत में साढ़े तीन हाथ और आरण अच्यत मे तीन हाथ ऊँचा है। अधो ग्रैवेयकों में अढ़ाई हाथ, मध्य ग्रैवेयकों में दो हाथ, और ऊ परिम ग्रैवेयकों में तथा नौ अनुदिशों में डेढ़ हाथ ऊँचा है। पाँच अनुत्तरों में एक हाथ ऊँचा शरीर है। विमान वगैरह परिग्रह भी ऊपर ऊपर कम है। कषाय की मन्दता होने से ऊपर ऊपर अभिमान भी कम है, क्योंकि जिनकी कषाय मन्द होती है वे ही जीव ऊपर ऊपर के कल्पों में जन्म लेते हैं। इसका खुलासा इस प्रकार है-असैनी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यञ्च अपने शुभ परिणामों से पुण्य कर्म का बन्ध करके भवनवासी और व्यन्तर देवों में उत्पन्न होते हैं। सैनी पर्याप्त कर्म * ********** 89D * ***** **** * *** ** *** * *** ***** **

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