Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Kailashchandra Shastri
Publisher: Prakashchandra evam Sulochana Jain USA

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Page 55
________________ D:\VIPUL\BOO1. PM65 (55) तत्त्वार्थ सूत्र ****** अध्याय सिवा शेष सात प्रकार के व्यन्तरों का आवास है और पंक बहुल भाग में राक्षसों का आवास है किन्तु पृथ्वी के ऊपर द्वीप, पर्वत समुद्र, गाँव नगर, देवालय, चौराहे वगैरह में भी इनका स्थान बतलाया है। इसीसे विविध स्थानों के निवासी होने के कारण उन्हें व्यन्तर कहते हैं ।। ११ ।। अब ज्योतिष्क देवों के भेद कहते हैं ज्योतिष्का: सूर्याचन्द्रमसौ ग्रह-नक्षत्रप्रकीर्णक-तारकाच ||१२|| अर्थ - ज्योतिष्क देव पाँच प्रकार के होते हैं-सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र और सर्वत्र फैले हुए तारे । चूँकि ये सब चमकीले होते हैं इसलिए इन्हें ज्योतिष्क कहते हैं। विशेषार्थ - सूर्य और चन्द्रमा का प्राधान्य बतलाने के लिए उन्हें सूत्र में अलग रखा गया है, क्योकि ग्रह वगैरह से उनका प्रभाव वगैरह अधिक है। इनमें चन्द्रमा इन्द्र है और सूर्य प्रतीन्द्र है। ये सब ज्योतिष्क देव मध्यलोक मे रहते हैं। धरातल से सात सौ नब्बे योजन ऊ पर तारे विचरण करते हैं। वे सब ज्योतिष्क देवों के नीचे हैं। तारों से दस योजन ऊ पर सूर्य का विमान है। सूर्य से अस्सी योजन ऊपर चन्द्रमा है । नक्षत्रों से चार योजन ऊ पर बुध का विमान है। बुध से तीन योजन ऊ पर शुक्र का विमान हैं । शुक्र से तीन योजन ऊपर बृहस्पति है। बृहस्पति से तीन योजन ऊ पर मंगल है और मंगल से तीन योजन ऊ पर शनैश्चर है। इस तरह एक सौ दस योजन की मोटाई में सब ज्योतिषी देव रहते हैं तथा तिर्यक् रुप से ये घनोदधि वातवलय तक फैले हुए हैं ॥ १२ ॥ ज्योतिष्क देवों का गमन बतलाते हैं मेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयो नृलोके ||१३|| अर्थ - ज्योतिषी देव मनुष्य लोक में मेरु की प्रदक्षिणा रुप से सदा *****++++++85 +++++++++++ तत्त्वार्थ सूत्र गमन करते रहते हैं । विशेषार्थ - अढ़ाई द्वीप और दो समुद्रों को मनुष्य लोक कहते हैं । मनुष्य लोक के ज्योतिषी देव मेरु से ग्यारह सौ इक्कीस योजन दूर रह कर उसके चारों और सदा घूमते रहते हैं। जम्बूद्वीप में दो, लवण समुद्र में चार, धातकी खंड में बारह, कालोदधि में बयालीस और पुष्करार्ध में बहत्तर चन्द्रमा हैं । एक चन्द्रमा के परिवार में एक सूर्य, अठासी ग्रह, अठाईस नक्षत्र, और छियासठ हजार नौ सौ पचहत्तर कोड़ा कोड़ी तारे होते हैं ॥ १३ ॥ ज्योतिषी देवों के गमन से ही कालका व्यवहार होता है यह बतलाते हैं +++++++++++++++अध्याय तत्कृत: कालविभागः ||१४|| अर्थ- उन ज्योतिषी देवों के गमन से कालका विभाग होता है। विशेषार्थ - काल दो प्रकार का है- व्यवहार काल और निश्चय काल । सैकिंड, मिनिट, घड़ी, मूहुर्त, दिन, रात, पक्ष, मास, वगैरह व्यवहार काल कहते हैं। यह व्यवहार काल सूर्य चंद्रमाकी गति से ही जाना जाता है तथा इसी से निश्चयकाल का बोध होता है, जिसका वर्णन आगे पाँचवे अध्याय मे किया है ॥ १४ ॥ मनुष्य लोक के बाहर ज्योतिषी देवों की स्थिति बतलाते हैंबहिरवस्थिताः ||१५|| अर्थ- मनुष्य लोक के बाहर ज्योतिषी देव अवस्थित हैं-गमन नही करते हैं। शंका- मनुष्य लोक में ज्योतिषी देवों का नित्य गमन बतलाने से ही यह ज्ञात हो जाता है कि बाहर के ज्योतिषी देव गमन नहीं करते । फिर इस बात को बतलाने के लिए 'बहिरवस्थिताः ' सूत्र बनाना व्यर्थ है । समाधान - यह सूत्र व्यर्थ नहीं है, क्योंकि मनुष्यलोक से बाहर ज्योतिषी देवों का अस्तित्व ही अभी सिद्ध नहीं है। अतः मनुष्यलोक से +++++++++++86 +++++++++++

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