Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Kailashchandra Shastri
Publisher: Prakashchandra evam Sulochana Jain USA
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तत्त्वार्थ सूत्र
अध्याय) एक समयाऽविग्रहा ||२९|| अर्थ - बिना मोड़े वाली गति मे एक समय लगता है। इसी को ऋजुगति कहते हैं ॥२९॥
आगे विग्रह गति मे आहारक और अनाहारक का नियम बतलाते हैं
एकं द्वौ त्रीन्वाऽनाहारकः ||३०|| अर्थ-विग्रह गति में जीव एक समय, दो समय अथवा तीन समय तक अनाहारक रहता है । औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, इन तीन शरीर और छ: पर्याप्तियों के योग्य पुद्गलों के ग्रहण करने को आहार कहते हैं। और शरीर के योग्य पुद्गलों के ग्रहण न करने को अनाहार कहते हैं। जो एक मोड़ा लेकर उत्पन्न होता है वह एक समय तक अनाहारक रहता है। जो दो मोड़ा लेकर उत्पन्न होता है वह दो समय तक अनाहारक रहता है और जो तीन मोडा लेकर उत्पन्न होता है वह तीन समय तक अनाहारक रहता है। अर्थात् मोड़े के समय अनाहारक रहता है। किन्तु जब मोड़ा समाप्त करके अपने उत्पति स्थान के लिए सीधा गमन करता है उस समय आहारक हो जाता है ॥३०॥
इस तरह छह सूत्रो के द्वारा गति का कथन करके जन्म के भेद बतलाते हैं
सम्मूर्छन - गर्भोपपादा जन्म ||३१|| अर्थ- जन्म तीन प्रकार का है-सम्मूर्छन -जन्म, गर्भ-जन्म और उपपाद जन्म । तीनों लोकों में सर्वत्र बिना माता पिता के सम्बन्ध के सब ओर से पुद्गलों को ग्रहण करके जो शरीर की रचना हो जाती है उसे सम्मूर्छन जन्म कहते हैं । स्त्री के उदर में माता-पिता के रज-वीर्य के मिलने से जो शरीर की रचना होती है उसे गर्भ जन्म कहते हैं; और जहाँ
तत्त्वार्थ सूत्र ############# अध्याय - जाते ही एक अन्तमुहुर्त में पूर्ण शरीर बन जाता है ऐसे देव और नारकियों के जन्म को उपपाद जन्म कहते हैं। इस तरह संसारी जीवों के तीन प्रकार के जन्म होते हैं ॥३१॥
आगे योनि के भेद बतलाते हैं - सचित-शीत-संवृताः सेतरा मिश्राश्चैक शस्तधोनयः ॥३शा
अर्थ- सचित्त-शीत-संवृत, इनके उल्टे अचित, उष्ण, विवृत, और इन तीनों का मेल अर्थात् सचित्ताचित्त, शीतोष्ण, संवृत-विवृत, ये योनि के नौ भेद हैं । जीवों के उत्पन्न के स्थान विशेष को योनि कहते हैं । जो योनि चेतना सहित हो उसे सचित्त योनि कहते हैं, अचेतन हो तो अचित्त कहते हैं, और दोनों रूप हो तो सचित्ताचित्त कहते हैं । शीत स्पर्श रूप हो तो शीतयोनि कहते हैं, उष्ण स्पर्शरूप हो तो उष्णयोनि कहते हैं,और दोनों रूप हो तो शीतोष्णयोनि कहते हैं । योनि स्थान ढका हुआ हो, स्पष्ट दिखायी न देता हो तो उसे संवृत योनि कहते हैं। स्पष्ट दिखायी देता हो तो उसे विवृत योनि कहते हैं और कुछ ढका हुआ तथा कुछ खुला हुआ हो तो उसे संवृत-विवृत कहते हैं । योनि और जन्म में आधार और आधेय का भेद है । योनि आधार है और जन्म आधेय है; क्योकि सचित आदि योनियों मे जीव सम्मूर्छन आदि जन्म लेकर उत्पन्न होता है।
विशेषार्थ- उदाहरण के रूप मे यहाँ कुछ जीवों की योनियाँ बतलाते हैं-उक्त नौ योनियों में से देव नारकियों की योनि अचित्त, शीत और उष्ण तथा संवृत होती है । गर्भ जन्मवालों की योनि सचित्त, अचित्त, शीत, उष्ण और शीतोष्ण तथा संवत-विवत होती है। सम्मूर्छन जन्मवालों की योनि सचित्त, अचित्त, शीत, उष्ण और शीतोष्ण होती है। इतना विशेष है कि तेजस्कायिक जीवों की उष्ण योनि ही होती है। तथा एकेन्द्रियों की संवृत्तयोनि और विकलेन्द्रियों की विवृत्त योनि होती है। इस तरह सामान्य से नौ योनियाँ होती है और विस्तार से चौरासी लाख योनियाँ कही हैं ॥३२॥
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