Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Kailashchandra Shastri
Publisher: Prakashchandra evam Sulochana Jain USA

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Page 24
________________ DIVIPULIBOO1.PM65 (24) तत्त्वार्थ सूत्र * *** ****###अध्याय - कि पुद्गल द्रव्य से सम्बद्ध जीव द्रव्य की भी कुछ पर्यायों को जानता है। क्योंकि संसारी जीव कर्मों से बँधा होने से मूर्तिक जैसा ही हो रहा है। किन्तु मुक्त जीव को तथा अन्य अमूर्तिक द्रव्यों को अवधिज्ञान नहीं जानता । वह तो अपने योग्य सक्ष्म अथवा स्थूल पुद्गल द्रव्य की त्रिकालवर्ती कुछ पर्यायों को ही जानता है ॥२७॥ आगे मन:पर्यय ज्ञान का विषय बतलाते हैं तदनन्तभागे मन:पर्ययस्य ॥२८॥ अर्थ-सर्वावधिज्ञान जिस रूपी द्रव्य को जानता है उसके अनन्तवें भाग को मनःपर्यय ज्ञान जानता है । सारांश यह कि अवधिज्ञान से मन:पर्यय ज्ञान अत्यन्त सूक्ष्म द्रव्य को जानने की शक्ति रखता है। शंका - सर्वावधि ज्ञान का विषय तो परमाणु बतलाया है। और उसके अनन्तवें भाग को मनःपर्यय जानता है। ऐसा कहा है। सो परमाणु के अनन्त भाग कैसे हो सकते हैं? समाधान - एक परमाणु में स्पर्श, रूप, रस और गन्ध गुण के अनन्त अविभागी प्रतिच्छेद (शक्ति के अंश) पाये जाते हैं। अत: उनकी अपेक्षा से परमाणु का भी अनन्तवाँ भाग होना संभव है ॥२८॥ अब केवल ज्ञान का विषय बतलाते हैं सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य ||२९|| अर्थ-केवल ज्ञान के विषय का नियम सब द्रव्यों की सब पर्यायों में है। आशय यह है कि एक-एक द्रव्य की त्रिकालवर्ती अनन्तानन्त पर्यायें होती हैं। सो सब द्रव्यों को और सब द्रव्यों की त्रिकालवर्ती अनन्तनानन्त पर्यायों को एक साथ एक समय में केवल ज्ञान प्रत्यक्ष जानता है ॥२९॥ इस प्रकार ज्ञानों का विषय कहा । तत्त्वार्थ सूत्र ** *********अध्याय :D अब यह बतलाते हैं कि एक आत्मा में एक साथ कितने ज्ञान रह सकते हैंएकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्लाचतुर्व्यः ||३०|| अर्थ-एक आत्मा में एक साथ एक से लेकर चार ज्ञान तक विभाग कर लेना चाहिये । अर्थात एक हो तो केवल ज्ञान होता है, दो हों तो मतिज्ञान श्रुतज्ञान होते हैं। तीन हों तो मति, श्रुत और अवधिज्ञान होते हैं या मति, श्रुत और मनःपर्यय ज्ञान होते हैं। चार हों तो मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यय ज्ञान होते हैं। इससे अधिक नहीं होते, क्योंकि केवल ज्ञान क्षायिक है- समस्त ज्ञानावरण कर्म का क्षय होने से होता है । इसीसे यह अकेला होता है, उसके साथ अन्य क्षायोपशमिक ज्ञान नहीं रह सकते॥३०॥ आगे बतलाते है कि आदि के तीन ज्ञान मिथ्या भी होते हैं __ मति-श्रुतावधयो विपर्यश्च ||३१|| अर्थ-विपर्यय का अर्थ विपरीत यानी उल्टा होता है। यहाँ सम्यग्ज्ञान का अधिकार है। अतः विपर्यय से सम्यग्ज्ञान का उलटा मिथ्याज्ञान लेना चाहिये । तथा 'च' शब्द समुच्चयवाची है। अत: मति, श्रुत और अवधि ज्ञान सच्चे भी होते हैं और मिथ्या भी होते हैं ऐसा सूत्र का अर्थ जानना चाहिये। शंका - ये तीनों ज्ञान मिथ्या क्यों होते हैं? समाधान - ये तीनों ज्ञान मिथ्यादृष्टि के भी होते हैं । अतः जैसे कडुवी तुम्बी में रखा हुआ दूध कडुवा हो जाता है, वैसे ही जिस आत्मा के मिथ्यादर्शन का उदय है उस आत्मा के ज्ञान मिथ्या होते हैं ॥३१॥ इस पर शंकाकार का कहना है कि जैसे सम्यग्दृष्टि मतिज्ञान के द्वारा रूप, रस वगैरह को जानता है वैसे ही मिथ्यादृष्टि कुमति ज्ञान के द्वारा जानता है। जैसे सम्यग्दृष्टि श्रुतज्ञान के द्वारा पदार्थों को जानकर दूसरों को

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