Book Title: Tap Sadhna Vidhi Ka Prasangik Anushilan Agamo se Ab Tak
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 13
________________ सम्पादकीय जैन धर्म के प्राचीन ग्रन्थों में चतुर्विध मोक्ष मार्ग का प्रतिपादन देखा जाता है। उसमें सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान, सम्यक चारित्र के साथ-साथ सम्यक तप को मोक्ष मार्ग माना गया है। श्वेताम्बर परम्परावर्ती उत्तराध्ययनसूत्र में तथा दिगम्बर परम्परा में आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में इसी मोक्ष मार्ग का विवेचन हुआ है। उत्तराध्ययनसूत्र तो स्पष्ट रूप से यह कहता है कि मोक्ष इच्छुक सम्यक ज्ञान के द्वारा तत्त्व के स्वरूप को जाने, सम्यक दर्शन के द्वारा उस पर श्रद्धा करे, सम्यक चारित्र के द्वारा आत्मा तत्त्वों को ग्रहण करें और सम्यक तप के द्वारा आत्मा की शुद्धि करें। इस प्रकार आत्मा की विशुद्धि का साधन तप ही माना गया है। जैन दर्शन मान्य नौ तत्त्वों की अवधारणा में पूर्व कर्मों की निर्जरा के लिए तप को ही साधन माना गया है। तत्त्वार्थसूत्र में भी इसका समर्थन किया गया है। इस प्रकार तप आत्म विशुद्धि का हेतु है और मोक्ष की उपलब्धि का अनन्तर कारण है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि जैन परम्परा में तप के दो विभाग किए गए हैंबाह्य और आन्तरिक। उपवास आदि को बाह्य तप कहा गया है जबकि स्वाध्याय, सेवा, ध्यान, कायोत्सर्ग आदि को आन्तरिक तप कहते हैं। यह कहा जाता है कि सम्यक चारित्र के द्वारा नए कर्मों के आगमन को रोका जा सकता है, इससे संवर हो सकता है किन्तु पूर्व संचित कर्मों की आत्मा से विशुद्धि अर्थात निर्जरा तप के द्वारा ही होती है। सुस्पष्ट है कि जैन धर्म तप प्रधान धर्म है। बौद्ध परम्परा ने जैनों की आलोचना इसी आधार पर की थी कि वे तप साधना पर अत्यधिक बल देते हैं। यह सत्य है कि जैन धर्म में देह दण्डन को स्थान मिला है किन्तु जैन परम्परा अज्ञान मूलक देह दण्डन की विरोधी भी रही है। कमठ की कठोर पंचाग्नि तप साधना की भगवान पार्श्व ने समालोचना की थी और कहा था कि तप ज्ञान और विवेक पूर्वक होना चाहिए। तप अपने लिए या दूसरों के लिए कष्ट अथवा कषाय का हेतु नहीं होना चाहिए।

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